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Utkarsh Ramsnehi Gurukul

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श्रेणियाँ: समाचार
भाषा: हिंदी
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नवीनतम संदेश 7

2023-04-24 08:59:02
रामधारी सिंह दिनकर
● रामधारी सिंह दिनकर का जन्म बिहार के मुंगेर जिले के सिमरिया गाँव में 30 सितंबर, 1908 को हुआ।
● वर्ष 1952 में दिनकर राज्यसभा के सदस्य मनोनीत किए गए।
● भारत सरकार ने इन्हें 'पद्मभूषण' अलंकरण से भी अलंकृत किया।
● दिनकर जी को 'संस्कृति के चार अध्याय' पुस्तक पर ‘साहित्य अकादमी’ पुरस्कार मिला।
● अपनी काव्यकृति 'उर्वशी' के लिए इन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
● हुँकार, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, परशुराम की प्रतीक्षा, उर्वशी, संस्कृति के चार अध्याय इत्यादि दिनकर की प्रमुख कृतियाँ हैं।
● दिनकर ओज के कवि माने जाते हैं।
● इनकी भाषा अत्यंत प्रवाहपूर्ण, ओजस्वी और सरल हैं। अपने देश और युग के सत्य के प्रति सजगता दिनकर की सबसे बड़ी विशेषता है।
● दिनकर में विचार और संवेदना का सुंदर समन्वय दिखाई देता है। इनकी कुछ कृतियों में प्रेम और सौंदर्य का भी चित्रण है।
● 24 अप्रैल, 1974 को दिनकर जी स्वयं को अपनी कविताओं में हमारे बीच जीवित रखकर सदा के लिए अमर हो गए।
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2023-04-21 06:52:00 महाराजा करणी सिंह
महाराजा करणी सिंह का जन्म 21 अप्रैल, 1924 को बीकानेर, राजस्थान में हुआ था।
करणी सिंह ने निशानेबाज़ी की शुरुआत अपने पिता स्वर्गीय महाराजा शार्दुल सिंह की देखरेख में की।
करणी सिंह की शिक्षा दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज में तथा बम्बई के सेंट जेवियर्स कॉलेज से हुई तथा उन्होंने बम्बई विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. की डिग्री भी हासिल की। उनकी थीसिस का विषय था- ‘द रिलेशन हाउस ऑफ़ बीकानेर विद सेंट्रल पॉवर्स फ़्रॉम 1465 टू 1949’।
करणी सिंह ने अपने निशानेबाज़ी के यादगार लम्हों को एक पुस्तक के रूप में भी प्रस्तुत किया, जिसका नाम है- ‘फ़्रॉम रोम टू मॉस्को’।
वे वर्ष 1952 से वर्ष 1977 तक संसद के सदस्य रहे।
करणी सिंह ने ‘क्ले पीज़न ट्रैप तथा स्कीट’ प्रतियोगिता में 17 वर्षों तक राष्ट्रीय चैंपियनशिप जीती।
उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतियोगिताओं में भारत का प्रतिनिधित्व किया और विश्व चैंपियनशिप में ‘रजत पदक’ भी जीता।
करणी सिंह देश के ऐसे पहले शूटर थे, जिन्हें भारत में पहली बार वर्ष 1961 में ‘अर्जुन पुरस्कार’ देकर सम्मानित किया गया।
दिल्ली में ऐतिहासिक तुगलकाबाद किले के पास स्थित डॉ. करणी सिंह शूटिंग रेंज का नाम उनके नाम पर रखा गया।
4 सितंबर, 1988 को उनका निधन हो गया।
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2023-04-21 06:52:00
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2023-04-21 06:50:00 राष्ट्रीय सिविल सेवा दिवस
प्रतिवर्ष 21 अप्रैल को भारत में ‘राष्ट्रीय सिविल सेवा दिवस’ का आयोजन किया जाता है।
यह देश के विभिन्न सार्वजनिक विभागों में लगे सभी अधिकारियों की सराहना के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है, जो भारत की प्रशासनिक मशीनरी को चलाने के लिए अथक् प्रयास करते हैं।
यह दिन विभिन्न विभागों में काम कर रहे सिविल सेवकों के लिए सबसे ऊपर देश के नागरिकों की सेवा करने के लिए एक अनुस्मारक के रूप में भी कार्य करता है।
भारत में प्रथम सिविल सेवा दिवस का आयोजन 21 अप्रैल, 2006 को विज्ञान भवन में आयोजित किया गया था।
21 अप्रैल, 1947 को सरदार वल्लभ भाई पटेल ने मेटकॉफ हाउस में स्वतंत्र भारत में सिविल सेवकों के पहले बैच को संबोधित किया था। ज्ञात हो, उन्होंने अपने प्रेरक भाषण में सिविल सेवकों को ‘भारत का स्टील फ्रेम’ कहा था।
इसी दिन राष्ट्रीय राजधानी में, सिविल सेवकों की उत्कृष्टता के लिए उन्हें भारत के प्रधानमंत्री द्वारा पुरस्कृत भी किया जाता है।
ईस्ट इंडिया कंपनी के अंत के बाद, 1886 ई. में CSS का नाम बदलकर इम्पीरियल सिविल सर्विस कर दिया गया तथा यह ब्रिटिश क्राउन के अधीन था।
बाद में, उसी वर्ष एचिसन आयोग द्वारा यह घोषणा की गई कि भारतीयों को भी सार्वजनिक सेवाओं में रोजगार दिया जाना चाहिए। इस प्रकार, इंपीरियल सिविल सर्विस का नाम बदलकर भारतीय सिविल सेवा का नाम दिया गया था।
भारत के इतिहास में पहली बार भारतीय सिविल सेवा परीक्षा का आयोजन वर्ष 1922 में किया गया था।
1 अक्टूबर, 1926 को सर रॉस बार्कर की अध्यक्षता में भारत के लोक सेवा आयोग की स्थापना की गई थी।
वर्ष 1924 में अखिल भारतीय सेवाओं का नाम बदलकर सेंट्रल सुपीरियर सर्विसेज कर दिया गया।
चूँकि वर्ष 1939 के बाद यूरोपीय लोगों की उपलब्धता कम हो गई, इसलिए सेवा में भारतीयों की संख्या में वृद्धि हुई।
वर्ष 1947 के बाद, भारतीय सिविल सेवा भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) बन गई। भारत में IAS अधिकारी बनने वाले पहले व्यक्ति सत्येंद्रनाथ टैगोर थे।
वर्ष 2023 के राष्ट्रीय सिविल सेवा दिवस का आयोजन नई दिल्ली के विज्ञान भवन में किया जा रहा है।
इस आयोजन के दौरान चार चिह्नित प्राथमिकता वाले कार्यक्रमों को भी शामिल किया गया हैं।
चार चिह्नित प्राथमिकता वाले कार्यक्रमों – हर घर जल योजना के माध्यम से स्वच्छ जल को बढ़ावा, हेल्थ एंड वैलनेस सेंटर के माध्यम से स्वस्थ भारत को बढ़ावा, समग्र शिक्षा के माध्यम से एक समान और समावेशी कक्षा के वातावरण के साथ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को बढ़ावा, आकांक्षी जिला कार्यक्रम के माध्यम से समग्र विकास – संतृप्ति दृष्टिकोण पर विशेष ध्यान देने के साथ समग्र प्रगति में किए गए अनुकरणीय कार्यों के लिए पुरस्कृत किया जाएगा।
उपर्युक्त चार चिह्नित कार्यक्रमों के लिए आठ पुरस्कार दिए जाएँगे, जबकि नवाचारों के लिए सात पुरस्कार प्रदान किए जाएँगे।
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2023-04-21 06:50:00
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2023-04-20 08:01:01 कोमल कोठारी
कोमल कोठारी का जन्म 4 मार्च, 1929 को राजस्थान के जोधपुर में हुआ था।
इनकी प्रारम्भिक शिक्षा उदयपुर में हुई थी।
कोमल कोठारी ने वर्ष 1953 में अपने पुराने दोस्त विजयदान देथा, जो देश के अग्रणी कहानीकारों में गिने जाते हैं, उनके साथ मिलकर 'प्रेरणा' नामक पत्रिका निकालनी शुरू की, जिसका उद्देश्य हर महीने एक नया लोकगीत खोजकर उसे लिपिबद्ध करना था।
विभिन्न प्रकार के काम करने के बाद कोमल कोठारी ने वर्ष 1958 में अन्ततः 'राजस्थान संगीत नाटक अकादमी' में कार्य करना शुरू किया।
इन्हें 'भारत सरकार' द्वारा वर्ष 2004 में कला के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान के लिए 'पद्म भूषण' से सम्मानित किया गया था।
ये कोमल कोठारी जी के परिश्रम का ही परिणाम था कि वर्ष 1963 में पहली बार मांगणियार कलाकारों का कोई दल राजधानी दिल्ली गया और वहाँ जाकर मंच पर अपनी प्रस्तुति दे सका।
कोमल कोठारी द्वारा राजस्थान की लोक कलाओं, लोक संगीत एवं वाद्यों के संरक्षण, लुप्त हो रही कलाओं की खोज एवं उन्नयन तथा लोक कलाकारों को प्रोत्साहित करने हेतु वर्ष 1964 में बोरूंदा में ‘रूपायन संस्थान’ की स्थापना की गई थी।
राजस्थानी लोक गीतों व कथाओं आदि के संकलन एवं शोध हेतु समर्पित कोमल कोठारी को राजस्थानी साहित्य में किए गए कार्य हेतु 'नेहरू फैलोशिप' भी प्रदान की गई थी।
इसके अतिरिक्त राजस्थान सरकार द्वारा इन्हें 'राजस्थान रत्न' से भी सम्मानित किया गया।
राजस्थानी लोक संगीत को संरक्षित करने वाले कोमल कोठारी का 20 अप्रैल, 2004 को निधन हो गया।
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2023-04-20 08:01:00
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2023-04-20 08:01:00 पण्डित गौरीशंकर हीराचंद ओझा
पण्डित गौरीशंकर हीराचंद ओझा का जन्म 15 सितम्बर, 1863 को मेवाड़ और सिरोही राज्य की सीमा पर स्थित 'रोहिड़ा' नामक छोटे से गाँव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था।
उनकी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव में ही हुई तथा कालांतर में 1877 ई. में मात्र 14 वर्ष की आयु में उच्च शिक्षा के लिए वे मुम्बई गए, जहाँ 1885 में 'एलफिंस्टन हाईस्कूल' से मेट्रिक्यूलेशन की परीक्षा उत्तीर्ण की।
1888 ई. में ओझा जी उदयपुर पहुँचे थे। कविराज श्यामलदास इनसे इतना प्रभावित हुए थे कि उन्होंने इन्हें अपने इतिहास कार्यालय में सहायक मंत्री बना दिया था, जिससे इन्हें मेवाड़ के भिन्न-भिन्न ऐतिहासिक स्थानों को देखने और ऐतिहासिक सामग्री संकलित करने का अवसर मिला।
उन्हें उदयपुर के विक्टोरिया हॉल के पुस्तकालय एवं म्यूजियम का अध्यक्ष बनाया गया। वहाँ पुरातत्त्व विभाग के लिए इन्हें शिलालेखों, सिक्कों, मूर्तियों आदि ऐतिहासिक सामग्री संग्रह करने का अवसर मिला।
यहाँ रहते हुए ही ओझा जी ने ‘भारतीय प्राचीन लिपिमाला’ (1894 ई.) नामक ग्रंथ लिख कर पुरातत्त्व जगत में विशिष्ट ख्याति प्राप्त की।
लॉर्ड कर्जन के संपर्क में आने पर ओझा जी की विद्वता से प्रभावित होकर कर्जन ने इन्हें अजमेर में म्यूजियम का अध्यक्ष बना दिया तथा वहीं रहते हुए वर्ष 1911 में इन्होंने 'सिरोही राज्य का इतिहास' लिखा था।
हिस्ट्री ऑफ़ राजपूताना शृंखला का प्रारंभ वर्ष 1926 में हुआ तथा पंद्रह वर्षों की अवधि में उदयपुर (मेवाड़), जोधपुर, बीकानेर, डूँगरपुर, बाँसवाड़ा तथा प्रतापगढ़ के इतिहास प्रकाशित हुए।
शिलालेख, दानपत्र, सिक्के, हस्तलिखित ख्यातें, बातें, राव-भाटों की बहियें, राजस्थानी व संस्कृत के काव्य, गुजराती व मराठी भाषाओं के ग्रंथ, फारसी ग्रंथों का अनुवाद और विदेशी यात्रियों के विवरण ओझा जी के इतिहास लेखन के आधार स्रोत रहे हैं।
इन्होंने प्रत्येक घटना के वर्णन में प्राप्त सभी आधार स्रोतों का उपयोग करते हुए उनकी सत्यता को प्रमाणित करने का यथासंभव प्रयास किया और संदर्भ सामग्री का सुस्पष्ट उल्लेख पाद टिप्पणी में किया।
20 अप्रैल, 1947 को ओझाजी की 84 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई।
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2023-04-20 08:01:00
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2023-04-19 07:19:59 चार्ल्स डार्विन
चार्ल्स डार्विन का जन्म 12 फरवरी, 1809 को इंग्लैंड के श्रोपशायर के श्रेव्स्बरी में हुआ था।
चार्ल्स डार्विन की प्रारंभिक शिक्षा एक ईसाई मिशनरी स्कूल में हुई।
1825 ई. में सोलह वर्ष की आयु में एडिनबर्ग की मेडिकल यूनिवर्सिटी में दाखिल दिलवाया गया।
एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी के बाद डार्विन को 1827 ई. में क्राइस्ट कॉलेज में दाखिल करवाया गया ताकि वे मेडिकल की आगे की पढ़ाई पूरी कर सकें।
बीगल पर विश्व भ्रमण हेतु अपनी समुद्री-यात्रा को वे अपने जीवन की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना मानते थे जिसने उनके व्यवसाय को सुनिश्चित किया।
समुद्री-यात्रा के बारे में उनके प्रकाशनों तथा उनके नमूने इस्तेमाल करने वाले प्रसिद्ध वैज्ञानिकों के कारण, उन्हें लंदन की वैज्ञानिक सोसायटी में प्रवेश पाने का अवसर प्राप्त हुआ।
अपने कैरियर के शुरुआत में डार्विन ने प्रजातियों के जीवाश्म सहित बर्नाकल (विशेष हंस) के अध्ययन में आठ वर्ष व्यतीत किए।
उन्होंने 1851 ई. तथा 1854 ई. में दो खंडों के जोड़ो में बर्नाकल के बारे में पहला सुनिश्चित वर्गीकरण विज्ञान का अध्ययन प्रस्तुत किया।
चार्ल्स डार्विन ने एच. एम. एस. बीगल की यात्रा के 20 साल बाद तक कई पौधों और जीवों की प्रजातियों का अध्ययन किया और 1858 ई. में दुनिया के सामने ‘क्रमविकास का सिद्धांत’ दिया।
इन्होंने अपना प्राकृतिक वरण का सिद्धान्त (Natural Selection Theory) 1859 ई. में अपनी पुस्तक 'प्राकृतिक वरण द्वारा नयी जातियों का उद्भव (Origin of New Species by Natural Selection) में प्रतिपादित किया।
जैव विकास के सिद्धांतों में 'डार्विनवाद' विश्व में सबसे अधिक प्रसिद्ध है।
चार्ल्स डार्विन का मत था कि प्रकृति क्रमिक परिवर्तन द्वारा अपना विकास करती है।
विकासवाद कहलाने वाला यही सिद्धांत आधुनिक जीवविज्ञान की नींव बना।
चार्ल्स डार्विन की मृत्यु 72 वर्ष की आयु में 19 अप्रैल, 1882 को डाउन हाउस, इंग्लैंड में हुई थी।
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