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नवीनतम संदेश 5

2022-01-03 07:31:00
213 viewsBahujan Update Official, 04:31
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2022-01-03 07:30:45
216 viewsBahujan Update Official, 04:30
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2022-01-03 07:30:29 दो साड़ी लेकर जाती थीं. रास्ते में कुछ लोग उन पर गोबर फेंक देते थे. गोबर फेंकने वाले ब्राह्मणों का मानना था कि शूद्र-अतिशूद्रों को पढ़ने का अधिकार नहीं है.

घर से जो साड़ी पहनकर निकलती थीं वो दुर्गंध से भर जाती थी. स्कूल पहुंच कर दूसरी साड़ी पहन लेती थीं. फिर लड़कियों को पढ़ाने लगती थीं.

यह घटना 1 जनवरी 1848 के आस-पास की है. इसी दिन सावित्री बाई फुले ने पुणे शहर के भिड़ेवाडी में लड़कियों के लिए एक स्कूल खोला था. आज उनका जन्मदिन है.

आज के दिन भारत की सभी महिलाओं और पुरुषों को उनके सम्मान में उन्हीं की तरह का टीका लगाना चाहिए क्योंकि इस महिला ने स्त्रियों को ही नहीं मर्दों को भी उनकी जड़ता और मूर्खता से आज़ाद किया है.

इस साल दो जनवरी को केरल में अलग-अलग दावों के अनुसार तीस से पचास लाख औरतें छह सौ किमी रास्ते पर दीवार बन कर खड़ी थीं. 1848 में सावित्री बाई अकेले ही भारत की करोड़ों औरतों के लिए दीवार बन कर खड़ी हो गई थीं.

केरल की इस दीवार की नींव सावित्री बाई ने अकेले डाली थी. अपने पति ज्येतिबा फुले और सगुणाबाई से मिलकर.

इनकी जीवनी से गुज़रिए आप गर्व से भर जाएंगे. सावित्री बाई की तस्वीर हर स्कूल में होनी चाहिए चाहे वह सरकारी हो या प्राइवेट. दुनिया के इतिहास में ऐसे महिला नहीं हुई.

जिस ब्राह्मणवाद ने उन पर गोबर फेंके, उनके पति ज्योति बा को पढ़ने से पिता को इतना धमकाया कि पिता ने बेटे को घर से ही निकाल दिया. उस सावित्री बाई ने एक ब्राह्मण की जान बचाई जब उससे एक महिला गर्भवती हो गई. गांव के लोग दोनों को मार रहे थे. सावित्री बाई पहुंच गईं और दोनों को बचा लिया.

सावित्री बाई ने पहला स्कूल नहीं खोला, पहली अध्यापिका नहीं बनीं बल्कि भारत में औरतें अब वैसी नहीं दिखेंगी जैसी दिखती आई हैं, इसका पहला जीता जागता मौलिक चार्टर बन गईं.

उन्होंने भारत की मरी हुई और मार दी गई औरतों को दोबारा से जन्म दिया. मर्दों का चोर समाज पुणे की विधवाओं को गर्भवती कर आत्महत्या के लिए छोड़ जाता था. सावित्री बाई ने ऐसी गर्भवती विधवाओं के लिए जो किया है उसकी मिसाल दुनिया में शायद ही हो.

‘1892 में उन्होंने महिला सेवा मंडल के रूप में पुणे की विधवा स्त्रियों के आर्थिक विकास के लिए देश का पहला महिला संगठन बनाया. इस संगठन में हर 15 दिनों में सावित्रीबाई स्वयं सभी गरीब दलित और विधवा स्त्रियों से चर्चा करतीं, उनकी समस्या सुनती और उसे दूर करने का उपाय भी सुझाती.’

मैंने यह हिस्सा फार्वर्ड प्रेस में सुजाता पारमिता के लेख से लिया है. सुजाता ने सावित्रीबाई फुले का जीवन-वृत विस्तार से लिखा है. आप उसे पढ़िए और शिक्षक हैं तो क्लासरूम में पढ़ कर सुनाइये. ये हिस्सा ज़ोर-ज़ोर से पढ़िए.

‘फुले दम्पत्ति ने 28 जनवरी 1853 में अपने पड़ोसी मित्र और आंदोलन के साथी उस्मान शेख के घर में बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना की. जिसकी पूरी जिम्मेदारी सावित्रीबाई ने संभाली.

वहां सभी बेसहारा गर्भवती स्त्रियों को बगैर किसी सवाल के शामिल कर उनकी देखभाल की जाती उनकी प्रसूति कर बच्चों की परवरिश की जाती जिसके लिए वहीं पालना घर भी बनाया गया. यह समस्या कितनी विकराल थी इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मात्र 4 सालों के अंदर ही 100 से अधिक विधवा स्त्रियों ने इस गृह में बच्चों को जन्म दिया.’

दुनिया में लगातार विकसित और मुखर हो रही नारीवादी सोच की ऐसी ठोस बुनियाद सावित्रीबाई और उनके पति ज्योतिबा ने मिलकर डाली. दोनों ऑक्सफोर्ड नहीं गए थे. बल्कि कुप्रथाओं को पहचाना, विरोध किया और समाधान पेश किया.

मैंने कुछ नया नहीं लिखा है. जो लिखा था उसे ही पेश किया है. बल्कि कम लिखा है. इसलिए लिखा है ताकि हम सावित्रीबाई फुले को सिर्फ डाक टिकटों के लिए याद न करें.

याद करें तो इस बात के लिए कि उस समय का समाज कितना घटिया और निर्दयी था, उस अंधविश्वासी समाज में कोई तार्किक और सह्रदयी एक महिला भी थी जिसका नाम सावित्री बाई फुले था।
आज जरूरत है हम सभी महान क्रान्तिकारी समाज-सुधारक जयोतिबाराव फुले और प्रथम महिला साबित्रीबाई फुले के सम्मान के काल्पनिक देवी सरस्वती को फेक कर साबित्री बाई फुले और उनके सहयोगियों फातिमा शेख को नमन करते हुए उनके योगदान को सभी को बतायें।
191 viewsBahujan Update Official, 04:30
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2022-01-03 07:30:29 शिक्षा की असली देवी साबित्री बाई फुले को नमन

आज महिला शिक्षा दिवस पर हम सावित्रीबाई फुले और उनके सहयोगियों फातिमा शेख को नमन करते हैं।

भारत की पहली महिला अध्यापिका

सावित्रीबाई ज्योतिराव फुले (3 जनवरी 1831 – 10 मार्च 1897) भारत की प्रथम महिला शिक्षिका, समाज सुधारिका एवं मराठी कवियत्री थीं। उन्होंने अपने पति ज्योतिराव गोविंदराव फुले के साथ मिलकर स्त्री अधिकारों एवं शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए। वे प्रथम महिला शिक्षिका थीं। उन्हें आधुनिक मराठी काव्य का अग्रदूत माना जाता है। 1852 में उन्होंने बालिकाओं के लिए एक विद्यालय की स्थापना की।
परिचय
सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को हुआ था। इनके पिता का नाम खन्दोजी नैवेसे और माता का नाम लक्ष्मी था। सावित्रीबाई फुले का विवाह 1840 में ज्योतिबा फुले से हुआ था।

सावित्रीबाई फुले भारत के पहले बालिका विद्यालय की पहली प्रिंसिपल और पहले किसान स्कूल की संस्थापक थीं। महात्मा ज्योतिबा को महाराष्ट्र और भारत में सामाजिक सुधार आंदोलन में एक सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में माना जाता है। उनको महिलाओं और दलित जातियों को शिक्षित करने के प्रयासों के लिए जाना जाता है। ज्योतिराव, जो बाद में ज्योतिबा के नाम से जाने गए सावित्रीबाई के संरक्षक, गुरु और समर्थक थे। सावित्रीबाई ने अपने जीवन को एक मिशन की तरह से जीया जिसका उद्देश्य था विधवा विवाह करवाना, छुआछूत मिटाना, महिलाओं की मुक्ति और दलित महिलाओं को शिक्षित बनाना। वे एक कवियत्री भी थीं उन्हें मराठी की आदिकवियत्री के रूप में भी जाना जाता था।

सामाजिक मुश्किलें

वे स्कूल जाती थीं, तो विरोधी लोग उनपर पत्थर मारते थे। उन पर गंदगी फेंक देते थे। आज से 171 साल पहले बालिकाओं के लिये जब स्कूल खोलना पाप का काम माना जाता था तब ऐसा होता था।

सावित्रीबाई पूरे देश की महानायिका हैं। हर बिरादरी और धर्म के लिये उन्होंने काम किया। जब सावित्रीबाई कन्याओं को पढ़ाने के लिए जाती थीं तो रास्ते में लोग उन पर गंदगी, कीचड़, गोबर, विष्ठा तक फेंका करते थे। सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुँच कर गंदी कर दी गई साड़ी बदल लेती थीं। अपने पथ पर चलते रहने की प्रेरणा बहुत अच्छे से देती हैं।

विद्यालय की स्थापना
3 जनवरी 1848 में पुणे में अपने पति के साथ मिलकर विभिन्न जातियों की नौ छात्राओं के साथ उन्होंने महिलोओ के लिए एक विद्यालय की स्थापना की। एक वर्ष में सावित्रीबाई और महात्मा फुले पाँच नये विद्यालय खोलने में सफल हुए। तत्कालीन सरकार ने इन्हे सम्मानित भी किया। एक महिला प्रिंसिपल के लिये सन् 1848 में बालिका विद्यालय चलाना कितना मुश्किल रहा होगा, इसकी कल्पना शायद आज भी नहीं की जा सकती। लड़कियों की शिक्षा पर उस समय सामाजिक पाबंदी थी। सावित्रीबाई फुले उस दौर में न सिर्फ खुद पढ़ीं, बल्कि दूसरी लड़कियों के पढ़ने का भी बंदोबस्त किया।[3]

निधन
10 मार्च 1897 को प्लेग के कारण सावित्रीबाई फुले का निधन हो गया। प्लेग महामारी में सावित्रीबाई प्लेग के मरीजों की सेवा करती थीं। एक प्लेग के छूत से प्रभावित बच्चे की सेवा करने के कारण इनको भी छूत लग गया। और इसी कारण से उनकी मृत्यु हुई।

सावित्रीबाई फुले पर प्रकाशित साहित्य
क्रांतिज्योती सावित्रीबाई फुले (लेखिका : शैलजा मोलक)[5]
क्रांतिज्योती सावित्रीबाई फुले (लेखक : ना.ग. पवार)
क्रांतिज्योती सावित्रीबाई फुले (लेखक : नागेश सुरवसे)
क्रांतिज्योती सावित्रीबाई फुले (विद्याविकास) (लेखक : ज्ञानेश्वर धानोरकर)
त्या होत्या म्हणून (लेखिका : डॉ. विजया वाड)
'व्हय मी सावित्रीबाई फुले' हे नाटक (एकपात्री प्रयोगकर्ती आद्य अभिनेत्री : सुषमा देशपांडे) (अन्य सादरकर्त्या - डॉ. वैशाली झगडे)
साध्वी सावित्रीबाई फुले (लेखिका : फुलवंता झोडगे)
सावित्रीबाई फुले (लेखक : अभय सदावर्ते)
सावित्रीबाई फुले (लेखिका : निशा डंके)
सावित्रीबाई फुले (लेखक : डी.बी. पाटील )
सावित्रीबाई फुले - श्रध्दा (लेखक : मोहम्मद शाकीर)
सावित्रीबाई फुले (लेखिका : प्रतिमा इंगोले )
सावित्रीबाई फुले (लेखक : जी.ए. उगले)
सावित्रीबाई फुले (लेखिका : मंगला गोखले)
सावित्रीबाई फुले : अष्टपैलू व्यक्तिमत्त्व (लेखक : ना.ग. पवार)
'हाँ मैं सावित्रीबाई फुले' (हिंदी), (प्रकाशक : अझिम प्रेमजी विद्यापीठ)
ज्ञान ज्योती माई सावित्री फुले (लेखिका : विजया इंगोले)
ज्ञानज्योती सावित्रीबाई फुले (लेखिका उषा पोळ-खंदारे)

https://t.me/Bahujan_Update

सावित्री बाई फुले: जिन्होंने औरतों को ही नहीं, मर्दों को भी उनकी जड़ता और मूर्खता से आज़ाद किया।

दुनिया में लगातार विकसित और मुखर हो रही नारीवादी सोच की ठोस बुनियाद सावित्रीबाई और उनके पति ज्योतिबा ने मिलकर डाली. दोनों ने समाज की कुप्रथाओं को पहचाना, विरोध किया और उनका समाधान पेश किया.
188 viewsBahujan Update Official, 04:30
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2022-01-02 01:34:28
234 viewsBahujan Update Official, 22:34
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2022-01-02 01:34:24 हर एक घर, हर एक झोपड़ी और हर गली के लिए भीषण हाथापाई और लड़ाई चल रही थी और ब्रिटिश आर्मी की सेना की भरी क्षति हो रही थी. परंतु भारतीय सैनिक जिसमे अत्यधिक संख्या में महार थे बड़ी बहदुरी और अत्यंत धैर्य के साथ जमकर लड़ रहे थे।

कप्तान स्टैनटिन ने अपने सैनिकों को आखरी दम तक और आखरी गोली तक लड़ने का आदेश दिया।

तब महार सैनिकों ने जबरदस्त उत्साह दिखाते हुए विषम परिस्थितियों में अत्यंत बहादुरी के साथ लड़ाई जारी रखी.

जब सूर्यास्त हो रहा था तब ब्रिटिश आर्मी ने अपने आपको बड़ी निराशाजनक और हतप्रभ स्थिति में पाया।
मराठा सेना के सेनापति मिस्टर गोखले ब्रिटिश फौज पर भारी पड़ रहे थे।
रात होने के साथ पुणे के मराठा सैनिकों का हमला थोड़ा ढीला पड़ा तो, ब्रिटिश सेना थोड़ा राहत महसूस की. तब केवल एक रहस्यमई अवसर ने इस घटना के लडाई चक्र को बदल दिया।

यह कहना कठिन था की पेशवा सैनिक जब जीत इतने नजदीक थे तो उन्होंने रात के 9:00 बजे के करीब गोलियां चलाना क्यों रोक दिया? और कोरेगाँव से सेना क्यों पीछे हटा ली?

इस लड़ाई में ब्रिटिश इंडियन आर्मी में लगभग 50 लोग मारे गए थे, जिसमें से केवल 22 महार थे, 16 मराठा थे, 8 राजपूत थे, 2 मुसलमान थे और 1 या 2 सम्भवताः इंडियन यहूदी थे।

इस वीरतापूर्ण साहस, सैन्य शक्ति, मानसिक दृढ़ता,अनुशासित निर्भयता दर्शाने वाले कार्य ने महार सैनिकों के लिए अमर प्रसिद्धि अर्जित कर दी।

शीघ्र ही यह निर्णय लिया गया कोरेगांव की उस स्थान पर जहां पहला गोला दागा गया था वहां लगभग 32 स्कॉयर फुट का चबूतरा बनाया जाए और उस पर 65 फीट ऊंचा एक स्मृति स्तम्भ लगवाया जाए.

इसका शिलान्याश 26 मार्च 1821 को हुआ था. बहादुर सैनिको के शौर्यपूर्ण कार्य व वीरता को चिरस्थाई बनाने के लिए स्मृति चिन्ह के रूप में किया गया था और यह निर्णय लिया गया था की शहीद हुए व जो घायल हुए थे उन सैनिकों का नाम इस स्तम्भ पर खुदवा दिए जाएंगे। क्योकि सैनिकों की वीरता एवं कर्तव्य परायणता का ही परिणाम था जिसने जो भारतीय फौज थी उसका कीर्ति और गौरव बढ़ाया था,

इनके सम्मान में एक विशेष पदक भी 1851 में जारी किया गया था जिसपे एक तरफ लिखा हुआ था “टू दी आर्मी ऑफ इंडिया” और दूसरी तरफ “कोरेगाँव का चित्र” छापा गया था।

इसके बाद भी मुंबई की महार सेना ने कई लड़ाई सफलतापूर्वक लड़ी है –

जैसे- काढियावाड़ 1826, मुल्तान एवं गुजरात 1849, कन्धार 1880, अफगान फर्स्ट और सेकंड बैटल, मियानी की लड़ाई 1843, फारस की लड़ाई 1855-57 , चीन में कार्यवाही 1860 और अदन 1865 और अबिनिशिया 1867 सारी लड़ाई में इनकी भागीदारी रही थी.

जरनल चार्ल्स नैफियर (जो इन्ही के सहयोग से सिंध पर कब्ज़ा किया था) लिखते है - “मै बम्बई सेना को सबसे अधिक प्रेम करता हूँ, मेरे मन में जब-जब मुंबई सेना के सिपाही का विचार आता है मैं उनकी प्रशंसा किए बगैर नहीं रह पाता। फिर लिखते है “16 अप्रैल 1880 को अफगानिस्तान में डबराई चौकी का बचाव करते हुए तीन महार सैनिक दुश्मनो के खेमे में घुस कर बहादुरी से तीन घण्टे तक 300 सैनिको से गोलीबारी करते हुए वीरतापूर्ण लड़े, अंत में उनको बारूद समाप्त होने से वें शहीद हो गए।
(जबकि उनको पहले ही वहां से वापस आने के लिए बता दिया गया था।)

*Repost (1-1-2021)*


रेफरेंस-
अंग्रेजी वॉल्यूम 17 पार्ट 3, पेज- 3से 7
हिंदी वॉल्यूम 37 पेज- 1 से 7
240 viewsBahujan Update Official, 22:34
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2022-01-02 01:34:24 *1 जनवरी 1818 शौर्य दिवस के बारे में डॉक्टर अंबेडकर के विचार-*

पेशवा की राजधानी पूना में जब गांव में कोई सवर्ण हिंदू आम रास्ते से जा रहा हो तो किसी अछूत को उस रास्ते से जाना वर्जित था, अछूत को अपनी कलाई या अपने गले में काला धागा पहनना होता था ताकि अछूत की पहचान बनी रहे और सवर्ण हिन्दू गलती से भी अछूत को छूकर दूषित ना हो जाए.

अछूतो को कमर में पीछे झाडू बांधकर जमीन पर लटका कर चलना होता था ताकि वह पीछे दूषित हुई जो मिट्टी है उसको साफ करें, जिससे कि पीछे आने वाला सवर्ण हिंदू दूषित न हो, पूना की राजधानी में अछूत को अपनी गर्दन में एक मिट्टी का बर्तन (हडिया) बांधकर लटकाना होता था जिसमें वह थूकता था ताकि कोई सवर्ण हिन्दू अनजाने में भी जमीन पर पड़े थूक पर पैर डालकर दूषित न हो……आगे

सन 1927 वर्ष का पहला दिन 1 जनवरी डिप्रेस्ड क्लास के लोगों ने पूना में भीमा कोरेगांव दिवस के संदर्भ में वार मेमोरियल (युद्ध स्मारक) जो बना हुआ है वहां पर सभा का आयोजन था, सभा में अध्यक्ष डॉ अम्बेडकर थे, और डिप्रेस्ड क्लास के सभी गणमान्य नेता वहां पर मौजूद थे.

अंबेडकर ने सभा को सम्बोधित करते हुए बताया, हमारे समुदाय के सैकड़ों योद्धाओं ने ब्रिटिश आर्मी के साथ मिलकर इस लड़ाई में भाग लिया था और वे जी-जान से लड़े थे परन्तु कुछ ही दिनों में उनको (महारो) को असैनिक समुदाय की उपाधि देकर बदनाम कर दिया और सेना में भर्ती से मना कर दिया।
आखिर वो (महार) लोग अंग्रेजो की फौज में क्यों गए? वो मजबूर थे, गरीब थे इसलिए वो अपना जीवन यापन करने के लिए उन्होंने ब्रिटिश आर्मी ज्वाइन की थी। उन्होंने आवाहन किया की महारो के ऊपर जो प्रतिबंध लगा है उसके खिलाफ लोग आंदोलन करें और मजबूर करें सरकार को ब्रिटिश हुकूमत को उन पर जो रोक लगी है उसको हटाए।
अम्बेडकर भीमा कोरेगांव युद्ध स्मारक का क्या महत्व था?
उन्होंने बताया
जरनल मैल्कम लिखते हैं –
जो महार ब्रिटिश आर्मी में शामिल हुए थे यह उनके लिए यह सुनहरा अवसर था अपनी वीरता का प्रदर्शन देश के अंदर और देश के बाहर दिखा सकें और इसके लिए ब्रिटिश हुकूमत भी उनकी मुंबई आर्मी के अधिकारियों और सिपाहियों की कर्तव्यनिष्ठा कि प्रशंसा की थी।
सन 1816 में मुंबई सेना के जो बोर्ड ऑफ डारेक्टर थे उसके सेक्रटरी को पत्र लिखा था की बम्बई सेना में सभी वर्गों और सभी धर्म जैसे हिंदू, मुसलमान, यहूदी, ईसाई सब लोग शामिल थे.

महाराष्ट्र के हिन्दुओं में परवरिश (परवरि मतलब महार) की संख्या राजपूतों और कुछ सवर्ण जातियों से ज्यादा थी यह परवरिश महाराष्ट्र के दक्षिणी समुद्र तट के रहने वाले थे.

यह इतने कर्त्तव्यनिष्ठ थे की- “खाद्य सामग्री के आभाव में और बीमारियों के फैले होने के बावजूद भी पैदल कूच करते हुए अपनी बहादुरी का परिचय उन्होंने दिखाया था, चाहे घिर जाते, चाहे बमबारी होती या रणनीति तरीके से पीछे हटना होता, फिर भी ऐसी स्थिति में अपने अधिकारियों के साथ हमेशा एक मजबूत पिलर की तरह खड़े रहे. उन्होंने अपने रेजीमेंट का सम्मान और गौरव बनाए रखा और कोई ऐसा काम नहीं किया जिससे उनके रेजिमेंट को शर्मिंदगी का सामना सामना करना पड़े”।

1 जनवरी 1818 को नए वर्ष के दिन महार सैनिकों ने भीमा नदी के किनारे कोरेगांव युद्ध क्षेत्र में लड़ते हुए वह कर दिखाया जो उनके सम्मान में चार चांद लगा गया.

यह 500 सैनिकों का छोटा दल था, पूना के इरेगुलर हॉर्स (आस्थाई अश्व सेना) 250 सैनिक थे, मद्रास रेजिमेंट के 24 ब्रिटिश गनर थे, इनका कप्तान एफ.एफ. स्टान्टन था।
775 सैनिक के आसपास यह पूरे लोग थे।
और पेशवा के 20 हजार घुड़सवार, 8 हजार पैदल सेना थी, कुल लगभग 28000 सेना थी।

घटनाक्रम

31 दिसंबर 1817 की शाम को शिरूर से कैप्टन स्टॉन्टन के साथ पूना के गैरिशन की रक्षा के लिए भेजा गया.
यह सैन्य टुकड़ी 27 मील पैदल चलकर सुबह 1 जनवरी 1818 को कोरेगाँव पहुंचे। वहां उन्हें मशहूर मराठा घुड़सवारों से घमासान लड़ाई का सामना करना पड़ा। कप्तान स्टान्टन अपनी सेना को कुछ निर्देशित कर पाते उससे पहले ही पेशवा सैनिको कि लगभग 600 सैनिकों की तीन टुकड़ी ने 3 दिशाओं से उनको घेर लिया और उनको ललकारा।

पेशवा सैनिकों के पास दो तोपे थी जो आगे बढ़ रही उनके सेना के रक्षा के लिए लगी हुई थी। रॉकेट की बौछार से स्टन्टिन की सेना को आगे बढ़ने से रोक रही थी।

पूना रेजिमेंट की जो अनियमित अश्व सेना थी उनके वीरता पूर्वक प्रयास के बावजूद पेशवा के मराठा घुड़सवारों और पैदल सेना ने पूरे गांव में पुरे ब्रिटिश सेना को घेर लिया था और नदी की ओर जाने वाले रास्ते को जाम कर दिया था, चढ़ाई करने वाली पेशवा की फौज ने अपनी शक्तियों का पूरा उपयोग कर सामने वालों को पीछे धकेलते हुए गांव के बीचो-बीच कुछ मजबूत और महत्वपूर्ण जगहों पर कब्जा कर लिया था और उस कब्जा को छुड़ाना लगभग असंभव था।
215 viewsBahujan Update Official, 22:34
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2022-01-01 19:06:48 यहां पर समय समय पर सभी तरह की प्रचलित फ़िल्में शेयर की जाती रहेंगी जिन्हें आप सिर्फ एक क्लिक में डाउनलोड कर सकते हैं

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225 viewsKK Sagar, 16:06
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2022-01-01 19:05:36
223 viewsKK Sagar, 16:05
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2022-01-01 19:05:00 शौर्य दिवस की हार्दिक मंगलकामनाए
‘भीमा नदी’ के तट पर बसा
गाँव
‘भीमा – कोरेगांव’
पुणे ( महाराष्ट्र )
की कहानी
01 जनवरी 1818 का
‘ठंडा’ दिन
दो ‘सेनाएं’
आमने - सामने
28000 सैनिकों सहित
‘पेशवा बाजीराव – ( II ) 2’
के विरूद्ध
‘बॉम्बे नेटिव लाइट इन्फेंट्री’ के
500 ‘महार’ सैनिक
‘ब्राह्मण’ राज बचाने की
फिराक में ‘पेशवा’
और
दूसरी तरफ
‘पेशवाओं’ के पशुवत
‘अत्याचारों’ का
‘बदला’ चुकाने की
‘फिराक’ में
गुस्से से तमतमाए
500 “ महार “
के बीच
घमासान ‘युद्ध’ हुआ
जिसमे
‘ब्रह्मा’ के मुँह से ‘जनित’
( पैदा हुए )
28000 ‘पेशवा’ की
500 महार योद्धाओ
से शर्मनाक ‘पराजय’ हुई
हमारे सिर्फ 500 योद्धाओने
28000 पेश्वाओका
नाश कर दिया।
234 viewsKK Sagar, 16:05
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