2022-05-06 20:11:07
संघर्ष
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हाथ में पांच पांच सौ की पांच नोट लेके वो सोचने पर मजबूर है
कौन कहता है खत्म हो जाता है अरे ये तो जीवन का अभिन्न अंग है उम्र और वक्त के साथ बढ़ता घटता रहता है कभी ज्यादा तो कभी कम ।
जो ऐसा सोचते हैं वो लोग अलग ही होते हैं।वो ऐसे कि कुछ करना नहीं चाहते,या जीवन के प्रति चार्म नहीं होता।
सोचते हुए रेखा उम्र के उस पड़ाव में जहां जिम्मेदारियों से तो मुक्त हो गई थी जीवन जीने के उत्साह लिए आगे बढ़ी आखिर उसे अपने दोनों के खर्च भी तो निकालने थे।बस यही भाव उसे कुछ करने पर मजबूर कर दिया। भाई ठीक भी है ब्याह कर आई थी तो तमाम जिम्मेदारियां सर पर थी, ननदों और देवरों की शादी सांस ससुर की जी हुजूरी,अपनों की अपेक्षाएं, और पति का प्रतियोगी परीक्षाओं का सहयोग, वगैरा वगैरा पर वो हिम्मत नही हारी , धैर्य और साहस के साथ सब कुछ निपटाया।उसी बीच ईश्वर की कृपा से उसे दो प्यारे प्यारे बच्चे भी हो गए।
उसने देखा कि बच्चे होने के बाद वो औरों की तरफ ध्यान नहीं दे पा रही फिर सच भी यही है कैसे देती।पर किसी ने कोई शिकायत नहीं कि बल्कि बिन ब्याही बची एक ननद और देवर ने उसका सहयोग किया।साथ ही सांस ससुर ने भी उनकी परवरिश में पूरा सहयोग किया।
क्योंकि पति की नौकरी बाहर थी।
पर इसने ये फैसला लिया कि वो यही रहेगा। हां वो छुट्टी छुट्टी में यहां आ जाया करेंगे।
वक्त बीतता गया कुछ लोग घर में कम हुए , कुछ अलग हुए तो कुछ बाहर चले गए।
कुल मिलाकर घर में चार लोग बचे। पर व्यस्तता कम नहीं हुई बल्कि और बढ़ गई क्योंकि लोग कम हुए तो पूरी जिम्मेदारी अपने सर आ गई ,इस पर वो घबराई नहीं , बल्कि पति को भी आने के लिए कहा।
खैर वो भी आ गए अब बच्चे जवान होने के साथ साथ नौकरी पेशा हुए तो शादी भी करनी पड़ी ,बदलते वक्त के साथ सभी ने अपनी अपनी पसंद की शादी की।वो भी उन दोनों की सहमति से। घर खुशियों से भर गया,नए लोगों का आगमन हुआ ।
माहौल पहले जैसा तो नहीं रहा पर रहना उन्हीं के बीच है तो रखना पड़ा।
चार सुन के चार अनसुनी करके।उसने देखा कि पहले तो मुद्दा बन जाता था पर धीरे धीरे आपस में आई ग़लतफहमियां आपसी बात चीत से दूर भी होने लगी। अब बदलते वक्त के साथ जब घर की नई नवेली बहुएं कामकाजी आई तो सहयोग करना ही था और फिर तो उनके पास वक्त ही नहीं होता था हमारे साथ बिताने का। जिसका उसको जरा भी मलाल नहीं रहा।
क्योंकि उसने खुद को अपने पोते पोतियों और अधूरी ख्वाहिशों को पूरा करने में और छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने में व्यस्त कर लिया।
क्योंकि नौकरी प्राइवेट थी और जो भी जमा किया था वो बच्चों की पढ़ाई और शादी में खर्च हो गया था।
फंडिंग बिल्कुल नहीं थी और किसी के सामने हाथ फैलाना नहीं चाहती।
इससे अच्छा है संघर्ष करो आत्मनिर्भर बनो। उसके हिसाब से उम्र के हिसाब से कम ज्यादा जरूरी होता है पर संघर्ष कभी खत्म नहीं होता।
स्वरचित
आरज़ू
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