2022-05-18 20:03:09
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"मन हर पल कविता बुनता है"
9 से 10 बजे
हाँ ...हाँ .... यही वक़्त
सिंक में रखे बर्तन साफ करने का
ये खास वक़्त सिर्फ और सिर्फ
तुमसे जी भर बातें करने का
सोचो तो...
कितना पास रह पाते हैं हम
पास हो कर भी
होते हैं अपने अपने काम में तल्लीन
हाँ.. हूँ ... में ही आधी बातें खत्म
मेरे दिन का आखिरी पहर तो तभी शुरू होता है
जब तुम सामने नहीं होते
तो भी होते हो
बर्तनों पर गिरते पानी में
और साफ हुई थाली कटोरी में
कभी चिमटे की चुटकी भरते
कभी हाथ से छूटती कलछी संभालते
हँस रहे हो .....
हम्महम्म ...?? सोच रहे होंगे न
" कैसी पगलिया है "
यूँ भी कोई बात करता है भला
सच मानो ... ऐन उन पलों में ही
बनती है मेरी सच्ची कविता
सच्चम सच्ची साफ सुथरी कविता
तब लिखने की क़वायद नहीं रहती
तब शब्द भार की मात्राएं नहीं होती
तब तुकांतक भी मिलाने नहीं होते
गुनती हूँ तो तुम्हें
बुनती हूँ तो तुम्हें
धोते मांजते पोंछते बस सोचती हूँ तुम्हें
तरह तरह के गीत बन जाते हैं
जिसे बाद में नहीं गा सकती
कितनी अलग है मेरी चाहना
जिसमें कोई चाह भी नहीं
बस ...तुम ही तुम
और तुममें खुद को ढूंढती मैं
थकी सी रात के कांधे पर
सारे दिन की थकन का सिर टिकाए
खामोश हो जाती हैं वे रसोई की आवाजें
"कल शाम फिर यूँ ही मिलोगे न"
सोचते हुए आँख लग जाती है
कमरे की डिम लाइट में
D P
Deepa M Khetawat
जोधपुर, राजस्थान से
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