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Jeevan Ki Anmol Nidhi

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Dev Chandel
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नवीनतम संदेश 5

2022-10-02 06:24:15 एक सिंहनी गर्भवती थी। वह छलांग लगाती थी एक टीले पर से। छलांग के झटके में उसका बच्चा गर्भ से गिर गया, गर्भपात हो गया।

वह तो छलांग लगा कर चली भी गई,
लेकिन नीचे से भेड़ों का एक
झुंड निकलता था,
वह बच्चा भेड़ों में गिर गया।
वह बच्चा बच गया।
वह भेड़ों में बड़ा हुआ।
वह भेड़ों जैसा ही रिरियाता,
मिमियाता। वह भेड़ों के
बीच ही सरक—सरक कर,
घिसट—घिसट कर चलता।
उसने भेड़—चाल सीख ली।

और कोई उपाय भी न था,
क्योंकि बच्चे तो अनुकरण से सीखते हैं।
जिनको उसने अपने आस—पास देखा,
उन्हीं से उसने अपने जीवन
का अर्थ भी समझा,
यही मैं हूं। और तो और,
आदमी भी कुछ नहीं करता,

वह तो सिंह—शावक था,
वह तो क्या करता?
उसने यही जाना कि मैं भेड़ हूं।
अपने को तो सीधा देखने
का कोई उपाय नहीं था;
दूसरों को देखता था अपने
चारों तरफ वैसी ही उसकी
मान्यता बन गई,
कि मैं भेड़ हूं।
वह भेड़ों जैसा डरता।
और भेड़ें भी उससे राजी हो गईं;
उन्हीं में बड़ा हुआ,
तो भेड़ों ने कभी उसकी
चिंता नहीं ली।
भेड़ें भी उसे भेड़ ही मानतीं।

ऐसे वर्षों बीत गये।
वह सिंह बहुत बड़ा हो गया,
वह भेड़ों से बहुत ऊपर उठ गया।
उसका बड़ा विराट शरीर,
लेकिन फिर भी वह
चलता भेड़ों के झुंड में।
और जरा—सी घबड़ाहट की हालत होती,
तो भेड़ें भागती, वह भी भागता।
उसने कभी जाना ही नहीं कि वह सिंह है।
था तो सिंह, लेकिन भूल गया।
सिंह से ‘न होने’ का तो
कोई उपाय न था,
लेकिन विस्मृति हो गई।

फिर एक दिन ऐसा हुआ कि
एक बूढ़े सिंह ने हमला किया
भेड़ों के उस झुंड पर।
वह बूढ़ा सिंह तो चौंक गया,
वह तो विश्वास ही न कर सका
कि एक जवान सिंह, सुंदर,
बलशाली, भेड़ों के बीच
घसर—पसर भागा जा रहा है,

और भेड़ें उससे घबड़ा नहीं रहीं।
और इस के सिंह को देखकर सब भागे,
बेतहाशा भागे, रोते—चिल्लाते भागे।
इस बूढ़े सिंह को भूख लगी थी,
लेकिन भूख भूल गई।

इसे तो यह चमत्कार समझ
में न आया कि यह हो क्या रहा है?
ऐसा तो कभी न सुना,
न आंखों देखा।
न कानों सुना,
न आंखों देखा;
यह हुआ क्या?

वह भागा।
उसने भेड़ों की तो
फिक्र छोड़ दी,
वह सिंह को पकड़ने भागा।
बामुश्किल पकड़ पाया :
क्योंकि था तो वह भी सिंह;
भागता तो सिंह की चाल से था,
समझा अपने को भेड़ था।
और यह बूढ़ा सिंह था,
वह जवान सिंह था।
बामुश्किल से पकड़ पाया।

जब पकड़ लिया,
तो वह रिरियाने लगा,
मिमियाने लगा।
सिंह ने कहा, अबे चुप!
एक सीमा होती है
किसी बात की।
यह तू कर क्या रहा है?
यह तू धोखा किसको दे रहा है?

वह तो घिसट
कर भागने लगा।
वह तो कहने लगा,
क्षमा करो महाराज,
मुझे जाने दो!

लेकिन वह बूढ़ा सिंह माना नहीं,
उसे घसीट कर ले गया नदी के किनारे।
नदी के शांत जल में, उसने
कहा जरा झांक कर देख।

दोनों ने झांका। उस युवा
सिंह ने देखा कि मेरा चेहरा
और इस बूढ़े सिंह का चेहरा
तो बिलकुल एक जैसा है।

बस एक क्षण में क्रांति घट गई।
‘कोई औषधि नहीं!’
हुंकार निकाल गया
गर्जना निकल गई,

पहाड़ कंप गये आसपास के!
कुछ कहने की जरूरत न रही।
कुछ उसे बूढ़े सिंह ने कहा भी
नहीं—सदगुरु रहा होगा!
दिखा दिया, दर्शन करा दिया।
जैसे ही पानी में झलक देखी
हम तो दोनों एक जैसे हैं.

बात भूल गई। वह जो वर्षों
तक भेड़ की धारणा थी,
वह एक क्षण में टूट गई।
उदघोषणा करनी न पड़ी,
उदघोषणा हो गई।
हुंकार निकल गया।
क्रांति घट गई।...

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सदगुरु के सत्संग का इतना
ही अर्थ होता है कि वह तुम्हें
घसीट कर वहां ले जाये,

जहा तुम उसके चेहरे और अपने
चेहरे को मिला कर देख पाओ,
जहां तुम उसके भीतर के अंतरतम को,
अपने अंतरतम के साथ मिला कर देख पाओ।
गर्जना हो जाती है,
एक क्षण में हो जाती है।

सत्संग का अर्थ ही यही है कि
किसी ऐसे व्यक्ति के
पास बैठना, उठना,

जिसे अपने स्वरूप का बोध हो गया है;
शायद उसके पास बैठते—बैठते
संक्रामक हो जाये बात;

शायद उसकी मौजूदगी में उसकी आंखों में,
उसके इशारों में तुम्हारे
भीतर सोया हुआ सिंह जाग जाये।
है।



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2022-10-01 06:26:44 *ईश्वर का न्याय*

एक रोज रास्ते में एक महात्मा अपने शिष्य के साथ भ्रमण पर निकले. गुरुजी को ज्यादा इधर-उधर की बातें करना पसंद नहीं था, कम बोलना और शांतिपूर्वक अपना कर्म करना ही गुरू को प्रिय था।
परन्तु शिष्य बहुत चपल था, उसे हमेशा इधर-उधर की बातें ही सूझती, उसे दूसरों की बातों में बड़ा ही आनंद आता था।

चलते हुए जब वो तालाब से होकर गुजर रहे थे, तो उन्होंने देखा कि एक झींवर नदी में जाल डाले हुए है. शिष्य यह सब देख खड़ा हो गया और झींवर को ‘अहिंसा परमोधर्म’ का उपदेश देने लगा।

लेकिन झींवर कहाँ समझने वाला था, पहले उसने टालमटोल करनी चाही और बात जब बहुत बढ़ गयी तो शिष्य और झींवर के बीच झगड़ा शुरू हो गया. यह झगड़ा देख गुरूजी जो उनसे बहुत आगे बढ़ गए थे, लौटे और शिष्य को अपने साथ चलने को कहा एवं शिष्य को पकड़कर ले चले।

गुरूजी ने अपने शिष्य से कहा- “बेटा हम जैसे साधुओं का काम सिर्फ समझाना है, लेकिन ईश्वर ने हमें दंड देने के लिए धरती पर नहीं भेजा है!” शिष्य ने पुछा- “महाराज को न तो बहुत से दण्डों के बारे में पता है और न ही हमारे राज्य के राजा बहुतों को दण्ड देते हैं. तो आखिर इसको दण्ड कौन देगा?”

शिष्य की इस बात का जवाब देते हुए गुरूजी ने कहा- “बेटा! तुम निश्चिंत रहो इसे भी दण्ड देने वाली एक अलौकिक शक्ति इस दुनिया में मौजूद है जिसकी पहुँच सभी जगह है… ईश्वर की दृष्टि सब तरफ है और वो सब जगह पहुँच जाते हैं।

इसलिए अभी तुम चलो, इस झगड़े में पड़ना गलत होगा, इसलिए इस झगड़े से दूर रहो..! शिष्य गुरुजी की बात सुनकर संतुष्ट हो गया और उनके साथ चल दिया।

इस बात को ठीक दो वर्ष ही बीते थे कि एक दिन गुरूजी और शिष्य दोनों उसी तालाब से होकर गुजरे, शिष्य भी अब दो साल पहले की वह झींवर वाली घटना भूल चूका था.. उन्होंने उसी तालाब के पास देखा कि एक चुटीयल साँप बहुत कष्ट में था उसे हजारों चीटियाँ नोच-नोच कर खा रही थीं। शिष्य ने यह दृश्य देखा और उससे रहा नहीं गया, दया से उसका ह्रदय पिघल गया था।
वह सर्प को चींटियों से बचाने के लिए जाने ही वाला था कि गुरूजी ने उसके हाथ पकड़ लिए और उसे जाने से मना करते हुए कहा-“ बेटा! इसे अपने कर्मों का फल भोगने दो.. यदि अभी तुमने इसे रोकना चाहा तो इस बेचारे को फिर से दुसरे जन्म में यह दुःख भोगने होंगे क्योंकि कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है..।

शिष्य ने गुरूजी से पुछा- “गुरूजी इसने कौन-सा कर्म किया है जो इस दुर्दशा में यह फँसा है?”

गुरू महाराज बोले- “यह वही झींवर है जिसे तुम पिछले वर्ष इसी स्थान पर मछली न मारने का उपदेश दे रहे थे और वह तुम्हारे साथ लड़ने के लिए आग-बबूला हुआ जा रहा था। वे मछलियाँ ही चींटी है जो इसे नोच-नोचकर खा रही है..”।

यह सुनते ही बड़े आश्चर्य से शिष्य ने कहा- गुरूजी, यह तो बड़ा ही विचित्र न्याय है।

गुरुजी ने कहा- “बेटा! इसी लोक में स्वर्ग-नरक के सारे दृश्य मौजूद हैं, हर क्षण तुम्हें ईश्वर के न्याय के नमूने देखने को मिल सकते हैं।
चाहे तुम्हारे कर्म शुभ हो या अशुभ उसका फल तुम्हें भोगना ही पड़ता है।
इसलिए ही वेद में भगवान ने उपदेश देते हुए कहा है- अपने किये कर्म को हमेशा याद रखो, यह विचारते रहो कि तुमने क्या किया है, क्योंकि ये सच है कि तुमको वहाँ भोगना पड़ेगा..।
जीवन का हर क्षण कीमती है इसलिए इसे बुरे कर्म के साथ व्यर्थ जाने मत दो।
अपने खाते में हमेशा अच्छे कर्मों की बढ़ोत्तरी करो क्योंकि तुम्हारे अच्छे कर्मों का परिणाम बहुत सुखद रूप से मिलेगा इसका उल्टा भी उतना ही सही है, तुम्हारे बुरे कर्मों का फल भी एक दिन बुरे तरीके से भुगतना पड़ेगा।
          इसलिए कर्मों पर ध्यान दो क्योंकि वो ईश्वर हमेशा न्याय ही करता है..”।

    शिष्य गुरुजी की बात स्पष्ट रूप से समझ चुका था…

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           दोस्तो, हम चाहे इस बात पर विश्वास करें या नहीं लेकिन यह शत्-प्रतिशत सच है कि ईश्वर हमेशा सही न्याय करते हैं. और उनके न्याय करने का सीधा सम्बन्ध हमारे अपने कर्मों से है. यदि हमने अपने जीवन में बहुत अच्छे कर्म किये हैं या अच्छे कर्म कर रहे हैं तो उसी के अनुरूप ईश्वर हमारे साथ न्याय करेंगे. यह जीवन हमें इसलिए मिला है ताकि हम कुछ ऐसे कार्य करें जिसको देखकर ईश्वर की आँखों में भी हमारे प्रति प्रेम छलक उठे!!



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2022-09-30 05:40:18 *इन्सान का गोश्त*

एक गिद्ध का बच्चा अपने माता-पिता के साथ रहता था। एक दिन गिद्ध का बच्चा अपने पिता से बोला- "पिताजी, मुझे भूख लगी है।''

"ठीक है, तू थोड़ी देर प्रतीक्षा कर। मैं अभी भोजन लेकर आता हूूं।'' कहते हुए गिद्ध उड़ने को उद्धत होने लगा। तभी उसके बच्चे ने उसे टोक दिया, "रूकिए पिताजी, आज मेरा मन इन्सान का गोश्त खाने का कर रहा है।''
"ठीक है, मैं देखता हूं।'' कहते हुए गिद्ध ने चोंच से अपने पुत्र का सिर सहलाया और बस्ती की ओर उड़ गया।
बस्ती के पास पहुंच कर गिद्ध काफी देर तक इधर-उधर मंडराता रहा, पर उसे कामयाबी नहीं मिली। थक-हार का वह सुअर का गोश्त लेकर अपने घोंसले में पहुंचा। उसे देख कर गिद्ध का बच्चा बोला, "पिताजी, मैं तो आपसे इन्सान का गोश्त लाने को कहा था, और आप तो सुअर का गोश्त ले आए?''

पुत्र की बात सुनकर गिद्ध झेंप गया। वह बोला, "ठीक है, तू थोड़ी देर प्रतीक्षा कर।'' कहते हुए गिद्ध पुन: उड़ गया। उसने इधर-उधर बहुत खोजा, पर उसे कामयाबी नहीं मिली। अपने घोंसले की ओर लौटते समय उसकी नजर एक मरी हुई गाय पर पड़ी। उसने अपनी पैनी चोंच से गाय के मांस का एक टुकड़ा तोड़ा और उसे लेकर घोंसले पर जा पहुंचा।

यह देखकर गिद्ध का बच्च एकदम से बिगड़ उठा, "पिताजी, ये तो गाय का गोश्त है। मुझे तो इन्सान का गोश्त खाना है। क्या आप मेरी इतनी सी इच्छा पूरी नहीं कर सकते?''

यह सुनकर गिद्ध बहुत शर्मिंदा हुआ। उसने मन ही मन एक योजना बनाई और अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए निकल पड़ा।

गिद्ध ने सुअर के गोश्त एक बड़ा सा टुकड़ा उठाया और उसे मस्जिद की बाउंड्रीवाल के अंदर डाल दिया। उसके बाद उसने गाय का गोश्त उठाया और उसे मंदिर के पास फेंक दिया। मांस के छोटे-छोटे टुकड़ों ने अपना काम किया और देखते ही पूरे शहर में आग लग गयी। रात होते-होते चारों ओर इंसानों की लाशें बिछ गयी।
यह देखकर गिद्ध बहुत प्रसन्न हुआ। उसने एक इन्सान के शरीर से गोश्त का बड़ा का टुकड़ा काटा और उसे लेकर अपने घोंसले में जा पहुंचा। यह देखकर गिद्ध का पुत्र बहुत प्रसन्न हुआ। वह बोला, "पापा ये कैसे हुआ? इन्सानों का इतना ढेर सारा गोश्त आपको कहां से मिला?"

गिद्ध बोला, "बेटा ये इन्सान कहने को तो खुद को बुद्धि के मामले में सबसे श्रेष्ठ समझता है, पर जरा-जरा सी बात पर 'जानवर' से भी बदतर बन जाता है और बिना सोचे-समझे मरने-मारने पर उतारू हो जाता है। इन्सानों के वेश में बैठे हुए अनेक गिद्ध ये काम सदियों से कर रहे हैं। मैंने उसी का लाभ उठाया और इन्सान को जानवर के गोश्त से जानवर से भी बद्तर बना दियाा।''

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साथि‍यो, क्या हमारे बीच बैठे हुए गिद्ध हमें कब तक अपनी उंगली पर नचाते रहेंगे? और कब तक हम जरा-जरा सी बात पर अपनी इन्सानियत भूल कर मानवता का खून बहाते रहेंगे?

अगर आपको यह कहानी सोचने के लिए विवश कर दे, तो प्लीज़ इसे दूसरों तक भी पहुंचाए। क्या पता आपका यह छोटा सा प्रयास इंसानों के बीच छिपे हुए किसी गिद्ध को इन्सान बनाने का कारण बन जाए।



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2022-09-29 05:24:45 *एक रुपये का सिक्क*


एक ब्राह्मण व्यक्ति सुबह उठकर मंदिर की ओर जा रहा था। वहां उसे रास्ते में ₹1 का सिक्का मिलता है। वह ब्राह्मण के मन में विचार आता है कि यह ₹1 रुपये में किसी दरिद्र को दे देता हु।


वह पूरे नगर में ढूंढता है उसे कोई दरिद्र और भिखारी नहीं मिलता है। हर रोज की तरह सुबह ब्राह्मण मंदिर की ओर प्रस्थान करते है। वहां उसे एक राजा दिखाई देता है वह बहुत बड़ी सेना लेकर दुसरे नगर में जाता रहता है।

राजा जैसे ब्राह्मण व्यक्ति को देखता है उसे प्रमाण करता है और कहता है की महात्मा मैं युद्ध करने जा रहा हूं, आप मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं दूसरे नगर के राज्यों को भी जीत सकूं।

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यह सुनते ही ब्राह्मण व्यक्ति ₹1 का सिक्का राजा के हाथ में थमा देता है। राजा आश्चर्यचकित हो जाता और पूछता है कि आपने यह ₹1 का सिक्का मेरे हाथ में क्यों थमाया ? ब्राह्मण व्यक्ति उत्तर देते हुए कहते हैं कि, मैं कई दिनों से कोई दरिद्र व्यक्ति ढूंढ रहा हूं जिसे ₹1रुपय दे सकूं।

पूरे नगर में ऐसा कोई दरिद्र और भिखारी व्यक्ति नहीं मिला जिसे में एक रुपये दे सकता हु। सिर्फ और सिर्फ आप ही मुझे ऐसे दरिद्र व्यक्ति मिले जिनके पास सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है जिसकी अपेक्षा हमेशा अधिक से अधिक पाने की रहती है। इसलिए मैं यहां ₹1 का सिक्का आपको देना चाहता हूं क्योंकि जो दरिद्र व्यक्ति की तलाश में था वह साक्षत मेरे सामने खड़ा है। यह सुनकर राजा का मस्तिष्क शर्म से झुक जाता है और वह अपनी सेना को वापस जाने का आदेश देता है।

शिक्षा:-
इस प्रसंग से सिख मिलती है की इंसान को कुछ पाने की जिद होनी चाहिए वह बहुत अच्छी बात है। पर आज कल व्यक्ति की इतनी तीव्र इच्छा होने के कारण मन में विचार आता है तेरे जेब का पैसा मेरे जेब में कैसा ऐसे स्वार्थी सोच में रहता है ! यह बिलकुल भी अच्छी बात नहीं है। फलस्वरूप : उसे सब कुछ मिलने के बाद भी वह दुखी रहता है क्योंकि उसकी इच्छा कभी खत्म नहीं होती।



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2022-09-28 05:16:17 *सेठ धनीराम*

एक गांव में एक बहुत बड़ा धनवान व्यक्ति रहता था। लोग उसे सेठ धनीराम कहते थे। उस सेठ के पास प्रचुर मात्रा में धन संपत्ति थी जिसके कारण उसके सगे-संबंधी, रिश्तेदार,भाई-बहन हमेशा उसे घेरे रहते थे वे उन्हीं के राग अलापते रहते थे, सेठ भी उन सभी लोगों की काफी मदद करता था। तभी अचानक कुछ समय बाद सेठ को भंयकर रोग लग गया।

इस भयंकर बीमारी का सेठ ने बहुत उपचार करवाया लेकिन इसका इलाज नहीं हो सका। आख़िरकार सेठ की मृत्यु हो गई। यमदूत उस सेठ को अपने साथ ले जाने के लिए आ गए, जैसे ही यमदूत सेठ को ले जाने लगे तभी सेठ थोड़ी दूर जाकर यमदूतो से प्रार्थना करने लगे कि “मुझे थोड़ा सा समय दे दो, मैं लौटकर तुरंत आता हूँ” दूतों ने उसे अनुमति दे दी।

सेठ लौटकर आया, चारों ओर नज़रे घुमायीं और वापस यमदूतों के पास आकर बोला- “शीघ्र चलिए” यमदूत उसे इस प्रकार अपने साथ चलने के लिए तैयार देखकर चकित रह गए और सेठ से इसका कारण पूछा। सेठ ने निराशा भरे स्वरों में कहा- “मैंने हेराफेरी करके अपार धन एकत्रित किया था, लोगों को खूब खिलाया-पिलाया और उनकी बहुत मदद भी की, सोचा था कि वो मेरा साथ कभी नहीं छोडेंगे। अब जब मैं इस दुनिया को सदा के लिए छोड़ कर जा रहा हूँ, तो वे सब बदल गए है मेरे लिए दुखी होने के बजाय, ये अभी से मेरी संपत्ति को बांटने की योजना बनाने लगे है किसी को मेरे लिए जरा-सा भी अफसोस नहीं है।”

सेठ की बात सुनकर यमदूत बोले- “इस संसार में प्राणी अकेला ही आता है और अकेला ही जाता है, इंसान जो भी अच्छा या बुरा कर्म करता है उसे इसका परिणाम स्वयं ही भुगतना पड़ता है, हर प्राणी इस सत्य को समझता तो है पर देर से।”

*शिक्षा:*
हम इस बात को अपने जीवन में भी देख रहे हैं। लोग जीवन के सत्य को भूलकर मानव द्वारा बनाए गए जाल जैसे लालच, रूपए-पैसा, बुराई आदि तले दब गए हैं।

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आप जो भोजन ग्रहण करते है वह पेट में 4 घंटे रहता है, जो वस्त्र पहनते है वह 4 महीने रहता है, लेकिन जो ज्ञान आप हासिल करते हैं वह आपके अंतिम सांस तक साथ रहता है और संस्कार बनकर आपकी अगली पीढी तक पहुँचता है, ज्ञान का बीज कभी व्यर्थ नहीं जाता। जो है जितना है सफल करते चलो, सफल करने से ही सफलता मिलती है।

हर व्यक्ति को सकारात्मक तरीके से देखो, सुनो और समझो। हम जितना ज्यादा पढ़ते है, सुनते है, समझते है, हमें अपनी कमियों का उतना ही ज्यादा एहसास होता है और इसी कमी को दूर करके हम सफलता की मंजिल की और अपने कदम बढ़ाते चले जाते है!



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2022-09-27 05:44:39 *कारण -अकार*

वो बूढ़ी भिखारन आज फिर बीमार है।  कल किसी ने बासी पूरियां खाने को दीं तो उसने जिह्वा के आधीन हो, चारों पूरियां गटक लीं।  आज सुबह से बार बार पेट की पीड़ा उसे व्याकुल कर दे रही है।  काश कहीं से बस दो केले मिल जाते तो उसका पेट और पीड़ा दोनों झट से हलके हो जाएँ।  पर यहाँ झुग्गी -झोंपड़ी में उसे कौन दो केले देगा ? बाहर निकल बाजार में भीख मांगे बिना दो केले मिलना नामुमकिन और इतनी पीड़ा में बाजार जाना असंभव।

"हे भगवान ! मुक्ति दे दो।  अब सहा नहीं जाता।  केले तो मिल नहीं सकते लेकिन परमेश्वर अपने पास बुला कर इस पीड़ा से मुक्ति तो दे दो। "

यहाँ वो बेचारी दो केले के लिए तरस रही और वहाँ मंदिर में एक श्रद्धालू  गौ -ग्रास की पांच सौ की पर्ची कटा रहा।  उस को पता होता बूढ़ी भिखारिन के बारे में तो वो क्या दो केले न दे देता उस बेचारी को !  लेकिन उस बेचारे को क्या पता ? सब ईश्वर की माया !

श्रद्धालू का बेटा भी साथ था।  वो भी पिता की तरह ही दयावान।  मंदिर से बाहर निकला तो पिता से हठ करने लगा कि बाहर रेहड़ी लगा कर खड़े केलेवाले से केले ले लें।  केले काले और कुछ ज्यादा पके हुए - बस इसलिए खरीद लिए गए कि बेचारा रेहड़ी वाला कुछ पैसे तो कमा ले।

घर पहुंचे तो गृह-स्वामिनी केले देखते ही चौंक गयीं :

"अरे कैसे केले ले आये हो ?"

"क्या करता ? तुम्हारे लाडले को उस केले वाले की बोहनी कराने का मन हो आया। " पिता ने मुस्कुराते हुए कहा।

"उफ़ तुम पिता -पुत्र तो कारूं का खजाना भी बस यूँ ही दान -पुण्य में लुटा सकते हो " गृहस्वामिनी के ताने में भी गर्व बोल रहा था।

संयोग से घर में झाड़ू -पोंछे काम करने वाली कमला  काम ख़त्म कर बाहर ही निकल रही  थी ।

"ये केले अपने घर ले जाओ ।  थोड़े काले हैं, पर अभी खरीदे हैं !" गृहस्वामिनी ने केले कमला को पकड़ाए।

कमला  ने खुशी -खुशी केले ले लिए और अपनी झोंपड़ी की तरफ चल पडी। 

चलते -चलते एक केला खाया तो देखा, दो केले चिरे से हुए हैं।

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कमला की नजर चिरे केलों पर और बूढ़ी भिखारिन की नजर बाई के हाथ में पकडे केलों पर साथ -साथ ही पडी।

"भगवान के नाम पर दो केले दे दे। भगवन खुशियों से तेरी झोली भर देंगे। " भिखारिन ने टेर लगाई।

कमला को भी दाता बनने का अवसर मिल गया ।

"ये ले अम्मा " कमला  ने दोनों चिरे हुए केले बूढ़ी भिखारिन की झोली में डाल दिए।

ईश्वर की लीला ने एक बार फिर नामुमकिन को मुमकिन बना डाला।




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2022-09-26 05:21:29 घड़ी की सुइयां

रामु अपने छोटे से कमरे  में गहरी नींद में सोया हुआ था। कमरे के शांत वातावरण में केवल घडी की टिक-टिक की आवाज गूंज रही थी।

टेबल पर रखी घड़ी की बड़ी सुई जैसे ही छोटी सुई से आकर मिली, उसने पूछा-“अरी कैसी हो छोटी सुई?”

“ठीक हूँ बहन, तुम कैसी हो?” अंगड़ाई लेकर छोटी सुई बोली।

“मैं तो चलते-चलते तंग आ गयी हैं। एक पल के लिये भी मुझे आराम नहीं मिलता। एक ही दायरे में घूमते-घूमते में तो अब ऊब गई हु। रामू का कुत्ता कालू तक सो रहा है, मगर हमें आराम नहीं ।”

“तुम ठीक कहती हो बहन। रामू को देखो, वह भी कैसे घोड़े बेचकर सो रहा है। खुद को सुबह उठाने का काम तक हमें सौंप रखा है। सुबह पाँच बजे जब हम अलार्म बजायेंगी, तब कहीं जाकर उठेगा क्या फायदा ऐसी जिन्दगी से ?”

“हाँ बहन.क्यों न हम भी चलना बन्द कर दें?” बड़ी सुई ने अपना सुझाव दिया।

छोटी सुई को भी बड़ी सुई का यह सुझाव पसन्द आ गया और दोनों चुपचाप जहां की तहाँ ठहर गयीं।

सुबह जब रामू की आंख खुलीं तो कमरे में धूप देखकर वह चौंक उठा। टेबल पर रखी घड़ी की ओर देखा तो उसमें अभी तक दो ही बज रहे थे।

रामू घबराकर बोला-“ओह आज तो इस घड़ी ने मुझे धोखा दे दिया। कितनी देर हो गयी उठने में? अब कैसे पढ़ाई पूरी होगी?” घड़ी को कोसता हुआ रामू कुछ ही देर में कमरे से चला गया ।

उसे इस तरह बड़बड़ाता और गुस्से क कारण कमरे से बाहर जाता देख छोटी सुई हँसकर बोली-“आज पता चलेगा बच्चू को हमारा महत्व क्या है?”

रामू के पिता ने जब घड़ी को बन्द देखा तो वे उसे उठाकर घड़ीसाज़ के पास ले गये।

घड़ीसाज़ ने उसे खोलकर अन्दर बारीकी से निरीक्षण किया। लेकिन उसे कुछ समझ नहीं आया ।

और कुछ देर तक घड़ी को सही करने के प्रयास के बाद वह रामू के पिता से बोला-“श्रीमान जी, इस घड़ी में खराबी तो कोई नज़र नहीं आ रही। शायद यह बहुत पुरानी हो गयी है। अब आप इसे आराम करने दीजिये।”

रामू के पिता उसे वापस ले आये और उन्होंने उसे कबाड़े के बक्से में डाल दिया।

फिर उन्होंने बक्से को बन्द कर दिया और बाहर आ गये। बक्से में अन्य टूटी-फूटी वस्तुएं पड़ी थीं।

बक्सा बन्द होते ही छोटी सुई घबरा गयी। वह बोली-“बहन! यह हम कहाँ आ गये हैं? यहाँ तो बहत अंधेरा है ।”

। अरी मेरा तो दम ही घुट रहा है।”. बड़ी सुई कराहती हुई बोली-“ये किस कैद खाने में बन्द हो गये हम? कोई हमें खुली हवा में ले जाये ।”

किन्तु उनकी बात को सुनने वाला कोई नहीं था।

अब दोनों को वह समय याद आ रहा था जब वे राजू के खुले हवादार कमरे में टेबल पर बिछे मेजपोश के ऊपर शान से इतराया करती थीं।

पास ही गुलदस्ते में ताजे फूल सजे होते थे। चलते रहने के कारण उनके शरीर में चुस्ती फुर्ती बनी रहा करती थी। कितनी कद्र थी उनकी आते जाते सब उनकी ओर देखते थे।

रामू बड़े प्यार से अपने रूमाल से घड़ी साफ किया करता था। अब दोनों सुइयाँ टिक-टिक करके चलने लगी थीं। क्योंकि उन्हें पता चल गया था कि कुछ ना करने से बेहतर है, कुछ करते रहना।

निकम्मों और आलसियों को दुनिया में कोई काम नहीं।

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अब दोनों अपने किये पर पछता रही थीं और इस आशा में चल रही थीं कि शायद कोई इधर आये हमारी टिक-टिक की आवाज सुने और हमें इस कैद से निकालकर फिर मेज पर सजा दे।

मित्रों“ चलना ही जिन्दगी है।” यानी जब तक आप क्रियाशील हैं तभी तक आपकी उपयोगिता बनी हुई है। तभी आपका जीवन सफल माना जायेगा और स्वयं भी आपको उस जीवन का आनन्द आयेगा। जिस प्रकार घड़ी की सुइयाँ बन्द हो गयीं तो उनके मालिक ने उन्हें व्यर्थ समझकर बॉक्स में बन्द कर दिया और फिर वे अपनी करनी पर कितनी पछताईं। अतः किसी को भी अपने जीवन को स्थिर नहीं रखना चाहिए।




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संकलन कर्ता-
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