*' पुरुषार्थ एवं भाग्य '* *पुरुषार्थ को इसलिए मानो कि ताकि तु | अध्यात्म(ब्रह्मज्ञान)
*" पुरुषार्थ एवं भाग्य "*
*पुरुषार्थ को इसलिए मानो कि ताकि तुम केवल भाग्य के भरोसे बैठकर अकर्मण्य बनकर जीवन प्रगति का अवसर न खो बैठें और भाग्य को इसलिए मानो ताकि पुरुषार्थ करने के बावजूद भी मनोवांछित फल की प्राप्ति न होने पर भी आप उद्धिग्नता से ऊपर उठकर संतोष में जी सकें।*
*जो लोग केवल पुरुषार्थ पर विश्वास रखते हैं प्रायः उनमे परिणाम के प्रति असंतोष सा बना रहता है और जो लोग केवल भाग्य पर विश्वास रखते हैं उनके अकर्मण्य होने की सम्भावना भी बनी रहती है।*
*अतः केवल एक को आधार बनाकर जिया गया जीवन अपनी वास्तविकता और सहजता खो बैठता है। कर्म रूपी प्रयास और भगवदकृपा रूपी प्रसाद का संतुलन जिसके जीवन में है वही जीवन के वास्तविक रस को और अभीष्ट को प्राप्त कर पाता है।*
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