2022-04-26 13:48:21
जातीय आकर्षण या प्रेम?
प्रेम - यह शब्द स्वयं में एक धोखा है, इसके नाम पर न जाने कितने चोंचले होते रहते है हर रोज। मूलतः बड़े से बड़े मनोवैज्ञानिक का कहना होता है की, प्रेम एक हार्मोनिकल चेंज के प्रभाव से अधिक कुछ नहीं। जातीय आकर्षण पर, care, possession, ego, और ममत्व का मिश्रण जोड़ तो तो तैयार हो गया प्रेम।
प्रेम एक बार ही होता है, love at first sight, प्रेम में रूप, कामयाब होने का कोई मतलब नहीं होता, यह सभी के सभी सामने वाले को झांसे में डालने के और खुद को महान दिखाने के दिखावे है। वस्तुतः, पुरुष सबसे पहले स्त्री का रूप ही देखता है, और स्त्री पुरुष का रूप, कामयाबी, समृद्धि, और उसका व्यक्तित्व। प्रेम के मामले में स्त्री ज्यादा choosy और विवेकी होती है, जब की पुरुष को केवल स्त्री से मतलब रहता है, हां प्रायोरिटी होती है अच्छी दिखने वाली लड़की हो ,लेकिन अंत में लड़की है इसी से काम चला लेते है।
प्रेम की मूल व्याख्या शास्त्र में श्रृंगार रस में की गई है, जो ईश्वर के प्रति है, नारद भक्ति सूत्र में कहते है की प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान हो, जो मनुष्य के लिए संभव ही नहीं। राधा और कृष्ण के प्रेम को भी सीरियल, मूवीज आदि में ग्लैमराइज किया गया है जब की मूल पुराणों में ऐसी कोई इतनी रोचक कथाएं है ही नहीं। दुष्यंत और शकुंतला के बीच भी केवल आकर्षण है। दुष्यंत शकुंतला के रूप में मोहित होता है, और शकुंतला दुष्यंत के पौरूषत्व से।
तो फिर यह जो एक दूसरे के बिना जिया नहीं जा सकता, जैसे चोंचले आते कहा से है?
यह सब के सब आते है मूवी, सिनेमा और ड्रामा में से। जहां बेफालतु में इसको बढ़ा चढ़ा कर दिखाया जाता है। कभी हॉलीवुड मूवीज देखना। और फिर बॉलीवुड मूवीज के साथ कंपेयर करना।
बात यह है की, एक बार अगर हम इनिशियल कारणों (रूप, कामयाबी) आदि से जुड़ जाते है उसके बाद एक दूसरे की आदत हो जाती है, ऊपर से इसके उद्दीपन का कार्य करते है हार्मोन्स। अब यही आदत हमे एक दुसरे को miss करना, न रह पाना आदि के लिए उकसाती है, इमोशनल बनाती है। अब तक जो माता पिता या भाई बहन के लिए हम जी रहे होते है, उनके बिना नहीं रह पाने की अवस्था होती है, वही अब नए साथी के लिए हो जाता है, लगने लगता है यही मेरा सबकुछ है।
देखिए यह नहीं कह रहा की केवल रूप ही, लेकिन ९९% किस्सों में यही एक कारण होता है। और यह न हो तो ऐसा कोई भी कारण जो फिजिकल (अर्थात कल्पनीय और दृश्यमान) हो वही होता है, आप लोगो ने कुछ मूवी देखी होगी जिसमे केवल टिफिन, और पत्र से कल्पनिय प्रेम हो जाता है। यही objectifying प्रेम है।
मुद्दा यह है, की प्रेम को लेकर बिलकुल भी सेंटीमेंटल होने की आवश्यकता नहीं है, साइको बनने की आवश्यकता नहीं है। आप कोई विश्व युद्ध में नेतृत्व नहीं करने का रहे, की न ही नोबल जीत रहें है अतः इसके लिए पागल न बने, कोई है लड़की तो ठीक है, इतना भी लट्टू न बने की अपना भविष्य और कैरियर खत्म कर दे। अंत में हर प्रेम खत्म तो सेक्स पर ही होता है। फ्राइड चाचा ने डंके की चोट पर कहा था, वही कालीदास ने भी पहले ही कह दिया। यह काम है, प्रेम नहीं, हमारे यहां भी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष कहा गया, सूत्र भी काम सूत्र लिखे गए। प्रेम नहीं। प्रेम एक मृगमरिचिका है।
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