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कबीर साहिब का एक शब्द है.--- मो को कहां ढूंढे रे बन्दे, मैं त | अध्यात्म(ब्रह्मज्ञान)

कबीर साहिब का एक शब्द है.---

मो को कहां ढूंढे रे बन्दे, मैं तो तेरे पास में
न तीरथ में न मूरत में, न एकान्त निवास में।
न मन्दिर में न मस्जिद में, न काशी कैलास में।
न मैं जप में न मैं तप में, न मैं बरत उपास में।
न मैं किरया कर्म में रहता, नहीं योग संन्यास में।
खोजी होय तुरत मिल जाऊँ, एक पल की तलास में।
कहे कबीर सुनो भाई साधो, मैं तो हूं विश्वास में।


इस शब्द को अगर ध्यान से पढ़ा जाए तो पता लगेगा कि किसी खो गई वस्तु की तलाश हमारे अन्दर एक 'मैं' पैदा हो जाने के कारण शुरू हो जाती है. मन में अनेक प्रकार की कामनाएं उठती हैं और हम उनकी पूर्ति के लिये ऊपर लिखे मानसिक इष्ट बना कर तलाश करते रहते हैं. इस सिलसिले में लिखा है कि न मैं तीरथ में हूँ, न मूरत में, न एकांत निवास में, न मन्दिर-मस्जिद में, न काशी-कैलाश में, न जप-तप में, न व्रत-उपवास में, न क्रिया-कर्म में और न योग में, न संन्यास में रहता हूँ. आखिर में लिखते हैं कि अगर कोई खोजी हो, ढूंढने वाला हो तो पल भर में अपनी इच्छित वस्तु को ढूंढ सकता है जो कि हमारे अपने ही विश्वास में है !!!