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ध्यान क्या है - भाग - 5 ध्यान का अर्थ है क्रियाहीन होना। ध्या | स्वयं निर्माण योजना

ध्यान क्या है - भाग - 5

ध्यान का अर्थ है क्रियाहीन होना। ध्यान क्रिया नहीं, अवस्था है। वह अपने स्वरूप में होने की स्थिति है। क्रिया में हम अपने से बाहर के जगत से संबंधित होते हैं। अक्रिया में स्वयं से संबंधित होते हैं। जब हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं, तब हमें उसका बोध होता है जो कि हम हैं। अन्यथा, क्रियाओं में व्यस्त हम स्वयं से ही अपरिचित रह जाते हैं।

यह स्मरण भी नहीं हो पाता है कि हम भी हैं। हमारी व्यस्तता बहुत सघन है। शरीर तो विश्राम भी कर ले, मन तो विश्राम करता ही नहीं है। जागते हम सोचते हैं, सोते स्वप्न देखते हैं। इस सतत व्यस्तता और क्रिया से घिरे हुए, हम स्वयं को भूल ही जाते हैं। अपनी ही क्रियाओं की भीड़ में अपना ही खोना हो जाता है। यह कैसा आश्चर्यजनक है?

पर यही हमारी वस्तुस्थिति है। हम खो गए हैं—किन्हीं अन्य लोगों की भीड़ में नहीं, अपने ही विचारों, अपने ही स्वप्नों, अपनी ही व्यस्तताओं और अपनी ही क्रियाओं में। हम अपने ही भीतर खो गए हैं।

ध्यान इस स्व—निर्मित भीड़ से, इस कल्पित भटकन से बाहर होने को मार्ग है। निश्चित ही वह स्वयं कोई क्रिया नहीं हो सकता है। वह कोई व्यस्तता नहीं है। वह अव्यस्त मन, अनऑक्युपाइड माइंड का नाम है। मैं यही सिखाता हूं। यह कैसा अजीब सा लगता है कहना कि मैं अक्रिया सिखाता हूं। मैं यही सिखाता हूं। और यह भी कि यहां हम अक्रिया करने को इकट्ठे हुए हैं।

मनुष्य की भाषा बहुत कमजोर है और बहुत सीमित है। वह क्रियाओं को ही प्रकट करने को बनी है, इसलिए आत्मा को प्रकट करने में सदा असमर्थ हो जाती है। निश्चित ही जो वाणी के लिए निर्मित है, वह मौन को कैसे अभिव्यक्त कर सकती है।

'ध्यान' शब्द से प्रतीत होता है कि वह कोई क्रिया है,पर वह क्रिया बिलकुल भी नहीं है। मैं कहूं कि 'मैं ध्यान करता था' तो गलत होगा, उचित होगा कि मैं कहूं कि 'मैं ध्यान में था।’ वह बात प्रेम जैसी ही है। मैं प्रेम में होता हूं। प्रेम किया नहीं जाता है। इसलिए मैंने कहा कि ध्यान एक चित्त—अवस्था, स्टेट ऑफ माइंड है
यह प्रारंभ में ही समझ लेना बहुत जरूरी है। हम यहां कुछ करने को नहीं, वरन उस स्थिति को अनुभव करने आए हैं, जब बस केवल हम होते हैं, और कोई क्रिया हममें नहीं होती है। क्रिया का कोई धुआं नहीं होता है और केवल सत्ता की अग्निशिखा ही रह जाती है। बस 'मैं' ही रह जाता हूं। यह विचार भी नहीं रह जाता है कि ' मैं हूं।’ बस ' होना मात्र' ही रह जाता है। इसे ही शून्य समझें।
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यही वह बिंदु है जहां से संसार का नहीं, सत्य का दर्शन होता है। इस शून्य में ही वह दीवार गिर जाती है, जो मुझे स्वयं को जानने से रोके हुए है। विचार के पर्दे उठ जाते हैं और प्रज्ञा का आविर्भाव होता है। इस सीमा में विचारा नहीं, जाना जाता है। दर्शन है यहां, साक्षात है यहां।
ओशो
ध्यान - सूत्र