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महाराणा प्रताप जन्म - 9 मई, 1540 (ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया, विक्र | Utkarsh Ramsnehi Gurukul

महाराणा प्रताप
जन्म - 9 मई, 1540 (ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया, विक्रम संवत् 1597, रविवार)
जन्म स्थान - बादल महल (कटारगढ़) कुंभलगढ़ दुर्ग
पिता – महाराणा उदयसिंह
माता – जयवंता बाई (पाली नरेश अखैराज सोनगरा की पुत्री)
विवाह – 1557 ई. में अजबदे पँवार के साथ हुआ।
पुत्र - अमरसिंह
शासनकाल – 1572-1597 ई.
उपनाम - 1. ‘कीका’ (मेवाड़ के पहाड़ी प्रदेशों में) 2. मेवाड़ केसरी 3. हिन्दुआ सूरज
राजमहल की क्रांति - उदयसिंह ने जगमाल को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था लेकिन मेवाड़ के सामन्तों ने जगमाल को हटाकर राणा प्रताप को शासक बनाया, यह घटना ‘राजमहल की क्रांति’ कहलाती है।
प्रथम राज्याभिषेक - 28 फरवरी, 1572 को महादेव बावड़ी (गोगुन्दा)
विधिवत् राज्याभिषेक - कुंभलगढ़ दुर्ग में हुआ जिसमें मारवाड़ के राव चन्द्रसेन सम्मिलित हुए।
प्रताप का घोड़ा – चेतक
हाथी – रामप्रसाद व लूणा
मुगलों से संघर्ष के लिए राणा प्रताप ने वीर सामन्तों तथा भीलों को एकजुट किया और उन्हें सैन्य व्यवस्था में उच्च पद देकर उनके सम्मान को बढ़ाया।
गोपनीय तरीके से युद्ध का प्रबंध करने के लिए प्रताप ने अपना निवास स्थान गोगुन्दा से कुंभलगढ़ स्थानान्तरित कर दिया।
अकबर द्वारा राणा प्रताप के पास भेजे गए 4 संधि प्रस्तावक/शिष्ट मण्डल –
(1) जलाल खाँ कोरची – नवम्बर, 1572
(2) मानसिंह – जून, 1573
(3) भगवन्तदास – अक्टूबर, 1573
(4) टोडरमल – दिसम्बर, 1573
हल्दीघाटी का युद्ध (राजसमन्द) ̶ 18 जून, 1576
वर्ष 1576 की शुरुआत में अकबर मेवाड़ पर आक्रमण की तैयारी हेतु अजमेर आया और यहीं पर मानसिंह को इस युद्ध का नेतृत्व सौंपा।
अकबर ने युद्ध की व्यूह रचना मैगजीन दुर्ग में रची थी।
मुगल सेना का प्रधान सेनानायक – मिर्जा मानसिंह (आमेर)
सहयोगी सेनानायक - आसफ खाँ
राणा प्रताप की हरावल सेना का नेतृत्व - हकीम खाँ सूर
चंदावल सेना का नेतृत्व - राणा पूँजा
मुगल सेना के हरावल भाग का नेतृत्व - सैय्यद हाशिम
मुगल पक्ष – मुहम्मद बदख्शी रफी, राजा जगन्नाथ और आसफ खाँ
इतिहासकार बदायूँनी युद्ध में मुगल सेना के साथ उपस्थित था।
हकीम खाँ सूर के नेतृत्व में राजपूतों ने पहला वार इतना भयंकर किया कि मुगल सेना भाग खड़ी हुई।
उसी समय मुगलों की आरक्षित सेना के प्रभारी मिहत्तर खाँ ने यह झूठी अफवाह फैलाई कि – “बादशाह अकबर स्वयं शाही सेना लेकर आ रहे हैं।”
यह सुनकर मुगल सेना फिर युद्ध के लिए आगे बढ़ी। मेवाड़ की सेना भी ‘रक्तताल’ नामक मैदान में आ डटी।
युद्ध में राणा प्रताप के लूणा व रामप्रसाद और अकबर के गजमुक्ता व गजराज हाथियों के मध्य युद्ध हुआ।
रामप्रसाद हाथी को मुगलों ने अपने अधिकार में ले लिया जिसका बाद में अकबर ने नाम बदलकर ‘पीरप्रसाद’ कर दिया।
राणा प्रताप ने पठान बहलोल खाँ पर ऐसा प्रहार किया कि उसके घोड़े सहित दो टुकड़े हो गए।
युद्ध में चेतक घोड़े पर राणा प्रताप और मर्दाना हाथी पर सवार मानसिंह का प्रत्यक्ष आमना-सामना हुआ।
प्रताप ने भाले से मानसिंह पर वार किया लेकिन मानसिंह बच गया। इस दौरान चेतक हाथी के प्रहार से घायल हो गया।
मुगल सेना ने प्रताप को चारों ओर से घेर लिया।
राणा प्रताप के घायल होने पर झाला बीदा ने राजचिह्न धारण किया तथा युद्ध लड़ते हुए वीर गति प्राप्त की।
युद्ध में हाथी के वार से घायल राणा प्रताप के घोड़े चेतक की एक नाले को पार करने के बाद मृत्यु हो गई।
बलीचा गाँव में चेतक की समाधि बनी हुई है।
‘अमरकाव्य वंशावली’ नामक ग्रंथ तथा राजप्रशस्ति के अनुसार यहाँ राणा प्रताप के भाई शक्तिसिंह ने प्रताप से मिलकर अपने किए की माफी माँगी।
हल्दीघाटी युद्ध अनिर्णीत रहा। अकबर राणा प्रताप को बंदी बनाने में विफल रहा।
युद्ध के परिणाम से नाराज अकबर ने मानसिंह और आसफ खाँ की ड्योढ़ी बंद कर दी।
बदायूँनी कृत ‘मुन्तखब-उत्त-तवारीख’ में हल्दीघाटी युद्ध का वर्णन किया।
इस युद्ध को अबुल-फजल ने ‘खमनौर का युद्ध’, बदायूँनी ने ‘गोगुन्दा का युद्ध’ तथा कर्नल टॉड ने ‘हल्दीघाटी का युद्ध’ कहा।
राजसमन्द में प्रत्येक वर्ष ‘हल्दीघाटी महोत्सव’ मनाया जाता है।
राणा प्रताप ने ‘आवरगढ़’ में अपनी अस्थाई राजधानी स्थापित की।
फरवरी, 1577 में अकबर खुद मेवाड़ अभियान पर आया लेकिन असफल रहा।
अक्टूबर, 1577 से नवम्बर, 1579 तक शाहबाज खाँ ने तीन बार मेवाड़ पर असफल आक्रमण किया।
3 अप्रैल, 1578 को शाहबाज खाँ ने कुम्भलगढ़ दुर्ग पर अधिकार किया।
राणा प्रताप ने कुंभलगढ़ दुर्ग पर पुन: अधिकार कर भाण सोनगरा को किलेदार नियुक्त किया।
भामाशाह (पाली) ने महाराणा प्रताप की आर्थिक सहायता की थी।
मेवाड़ का उद्धारक व दानवीर - भामाशाह को कहा जाता है।