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।। श्रीहरिः ।। *।। ऊँ श्रीपरमात्मने नमः ।।* *परमप्रभु अपने ही | स्वामी रामसुखदासजी Swami RamsukhdasJi

।। श्रीहरिः ।।
*।। ऊँ श्रीपरमात्मने नमः ।।*
*परमप्रभु अपने ही महुँ पायो १२५*

*स्त्री-पुरुषका संग ही 'काम' नहीं है, प्रत्युत कोई भी नाशवान् वस्तु प्यारी लगती है तो वह 'काम' है ।* मनुष्य मकान बनाता है, उसको सजाता है, सुन्दर बनाता है *तो यह सब काम है ।* *यह काम ही प्रेममें बाधक है ।* भगवान् के स्मरणमें, नामजपमें, कीर्तनमें मस्त हो जाय तो प्रेम हो जायगा और *काम नष्ट हो जायगा । बिना प्रेमके काम नष्ट नहीं होता ।* वह प्रेम चाहे भगवान् के नाममें हो जाय, चाहे भगवान् के धाममें हो जाय, चाहे भगवान् की लीलामें हो जाय, चाहे भगवान् के चरित्रोंमें हो जाय *तो काम नष्ट हो जायगा ।* भगवान् मेरे हैं - इस तरह भगवान् में *आकर्षण* हो जाय । *रामायणकी* समाप्तिमें एक दोहा आता है -

*कामिहि नारि पिआरि जिमि*
*लोभिहि प्रिय जिमि दाम ।*
*तिमि रघुनाथ निरंतर*
*प्रिय लागहु मोहि राम ।।*
(मानस, उत्तर० १३० ख )

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शेष आगामी पोस्टमें

परमप्रभु अपने ही महुँ पायो
श्रद्धैय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज
पृष्ठ संख्या ८७

नारायण! नारायण! नारायण!