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सिद्ध मद्य इसके प्रभाव को हम क्रियायोग एवं तंत्र दोनों ही अन | Sahaj Kriyayog Sadhna Adhyatmik Trust

सिद्ध मद्य

इसके प्रभाव को हम क्रियायोग एवं तंत्र दोनों ही अनुसार से समझेंगे जिससे साधकों को ज्यादा बेहतर समझ आएगा

मानव शरीर में नाना प्रकार की वायु , कोष एवं नाडी चक्र होते हैं जो जन्म से स्वत एक निश्चित स्थति में होते हैं जिससे मनुष्य एक सामान्य जीवन जीता है लेकिन इनमे थोडा सा भी फेर बदल साधक के जीवन में कौतुहल ला सका है जिसमे व्यक्ति शारीरिक , मानसिक, आत्मिक समस्या से झूझता है अतः यह समझ आवश्यक है की सिर्फ भौतिक ही नही आन्तरिक उर्जा शरीर भी संतुलित रहें. जो भी शोध आज के समय में होते हैं वह उनपे ही हैं जो हौतिक रूप से उपस्थित हैं इसी कारण से शारीरिक आन्तरिक उर्जा का स्त्रोत सूक्ष्म एवं कारण शरीर पर सिर्फ अध्यातिक दृष्टि से ही शोध किया गया है जिसके सम्पूर्ण फल प्राप्त हुए हैं मुक्ति एवं मोक्ष के सन्दर्भ में अतः साधक योग के माध्यम से स्वयं के पूर्ण आन्तरिक भौतिक शरीर को स्वस्थ रख सकते हैं लेकिन ऐसा करने में असमर्थ होने के कारण साधक नाना प्रकार की समाश्या से ग्रसित होते हैं जिन्हें खान पान अथवा दवा से ठीक होने में अत्यधिक समय लग सकता है.

भौतिक शरीर में समस्या जब भी होगी उसी के साथ आन्तरिक उर्जा शरीर में भी बदलाव होंगे अथवा जब अंतर्क उर्जा शरीर में बदलाव होंगे वह भौतिक शरीर में दिखेगा इसलिए जब भी व्यक्ति किसी प्रकार की अप्रकिर्तिक समस्या होती है उसमे नाना प्रकार की उर्जा की आवश्यता होती है उसे ठीक करने हेतु जिसमे रस गंध सपर्श आदि सभी सम्मिलित है. शरीर में मुख्या ५ वायु जो शरीर को पूर्ण रूप से स्वस्थ रखने हेतु जिम्मेदार है साथ में कफ, वाट, पित्त जो की मूल ५ तत्त्व का ही स्वरुप है. जैसे जल एवं भूमि मिल के कफ , जल और अग्नि मिलके पित्त और आकश और वायु मिलके वात निर्मित होते हैं.

समस्या तब होती है जब इनमे से कुछ भी असंतुलित हो जाये उसमे व्यक्ति को यह समझ नही आता है की वह क्या कर रहा है शरीर में ५ मुख्या वायु में उदान वायु शरीर के कंठ से उपरी भाग में होती है जो की मश्तिष्क का नियंत्रण रखती है . इसी के कारण शरीर का भार रहता है जब व्यक्ति का देहांत होता है उस समय इसी के आभाव में शरीर भारी हो जाता है इसमें बदलाव होने पर व्यक्ति नाना प्रकार के मानसिक कष्ट का सामना करता है जिसमे वह

एक काल्पनिक जीवन जीना लगता है , अनर्गल बाते करता है, भय में जीवन जीने लगता है , जब यह वायु असंतुलित होती है उसी के साथ व्यान वायु भी होती है जिसमे त्वचा खराब होने लगती है और साधक सपर्श की शक्ति खोने लगता है धीरे धीरे मंपेशियाँ आदि कमज़ोर होने लगती है.

ऐसी स्थिति में साधक को आन्तरिक उर्जा के विकास की आवश्यकता है जिसे वह योग के माध्यम से अथवा रस स्पर्च गंध के माध्यम से प्राप्त करता है जिससे वह इस असतुन्लन से शीघ्र बहार निकल सके.

यह रस ही सिद्ध मद्य है.


तंत्र अनुसार -

साधक अपने जीवन में नाना प्रकार के स्थान एवं व्यक्ति के प्रभाव में आते हैं जिसमे साधक सम्पूर्ण समर्पण करते हैं जिस समय वह मूत्र त्याग करते हैं अथवा सम्भोग करते है उनका शरीर स्वयं सुरक्षा में कम रहता है जिस कारण से कसी भी अतृप्तता प्रभाव में आसानी से आ जाता है यह सिर्फ इन्ही दो समय पर नही होता है अन्य हर समय साधक का शरीर नाना प्रकार की प्रकृति में प्रभावित क्रियायों का सामना करता रहता है जिसमे यदि वह आन्तरिक रूप से शक्तिशाली है तो उन्हें पार कर लेता है अन्यथा प्रभाव में आ जाता है जिसे सामान्य शब्द में नकारात्मकता कहते हैं.

अपने अधिकतर सुना होगा की किसी को भूत अथवा प्रेत ने पकड लिया जब वह किसी जगह पेशाप कर रहा था उसका मूल कारण स्वयं को स्वच्छंद छोड़ना है जिसकी वजह से प्रभाव में आने की संभावनाएं बढ़ जाती है इसीलिए व्यक्ति को सम्भोग एवं इससे सम्बंधित क्रिया को निर्धारित स्थान पर ही करना चाहिए

चन्द्र जल एवं मन का कारक होते हैं, सूर्या द्वारा भूमि पर जीवन होता है यह तो हर व्यक्ति समझता है इसीलिए तंत्र में हठ योग की इतनी मत्वता है यदि साधक इसका अभ्यास करता है तो कोई भी नकारात्क शक्ति उसके समीप भी नही आ सकती है साथ ही साथ वह इनपे नियंत्रण भी कर लेता है लेकिन साधक अपने निजी जीवन में इतने व्यस्त है की उनके पास समय नही है इसलिए इनके असंतुलन अथवा यह नाडी असंतुलन ही शरीरिक समाश्या उत्पन्न करता है जिसमे कुछ चक्र प्रभावित हो जाते हैं

इनको पूर्ण रूप से संतुलित और प्रभावशाली बनाने हेतु ही सिद्ध मद्य है जिससे साधक के अंदर प्रकृति से समस्त उर्जा को ग्रहण करने की शक्ति बढती है और उसके नाडी और शरीर में उर्जा विकास होता है.


यह मूल स्वरुप है इसे समझने का अब समझते हैं इन्हें प्राप्त होने वाले लाभ के विषय में -
यह सिर्फ सेवन करने वाले के शरीर पर कार्य करता है - सेवन विधि जल में इसे मिला कर पिए