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संत कबीर - हरी जी यही विचारिया, साखी कहे कबीर |१| भवसागर / | Sahaj Kriyayog Sadhna Adhyatmik Trust

संत कबीर -

हरी जी यही विचारिया, साखी कहे कबीर |१|
भवसागर / यौसागर / भौसागर में जीव हैं, मती कोई पकडे तीर ||२||

हरी जी यही विचारिया, साखी कहे कबीर |१|
भवसागर / यौसागर / भौसागर में जीव हैं, सुनी के लागे तीर ||२||

हरी जी यही विचारिया, साखी कहे कबीर |१|
भवसागर / यौसागर / भौसागर में जीव हैं, जे कोइ पकड़े तीर ||२||


इस दोहे को अनेक प्रकार से दिखाया गया है संत कबीर द्वारा तो एक ही लिखा गया है लेकिन उसमे समय के साथ शयद लेखनी में बदलाव किये गये हैं जिससे सचेत रहना आवश्यक है.

सर्वप्रथम संत कबीर में कबीर के अर्थ को समझते हैं कबीर स्वयं को जाया से दर्शाते हैं साथ ही साथ

- क का अर्थ करने से है और करता मस्तिष्क है
- ब का अर्थ बोलने से है जिसका अर्थ कंठ से है
- निकतम है
- उस बीज से प्रफुल्लित शक्ति के (इन्द्रिययों की शक्ति का सम्मिलित स्वरुप)

एक अनिश्चित समय तक कूटस्थ ,मस्तिष्क एवं कंठ में स्थिर रहने के बाद जो शक्ति की स्थिति प्राप्त होती है उसे कबीर कहा गया है.

दोहा व्याख्या -

हरी - जीवात्मा स्त्रोत - ब्रह्मं

सत निरकार परब्रह्म के रूप में समस्त श्रृष्टि के रचियता हैं उससे ही चित् एवं आनंद चैतन्य एवं माया के प्रभाव में उत्पन्न होते हैं चित् मन ममय के प्रभाव से चित में परिवर्तित होता है .
परब्रह्म ही रचियता हैं , ब्रह्मं जब यह बिंदु आता है वह प्रक्रिया निरंतर होती है इसे जी जीवात्मा कहते हैं ब्रह्मा यह वह है जिसे परब्रह्म के रचना का सम्पूर्ण ज्ञान है यह इनमे अंतर है इसे जब आप समझ पाएंगे तभी इस दोहे के अर्थ को समझ पाएंगे.

विचार - वि को विगत से दर्शाते हैं जिसका अर्थ है काल अर्थात जो भूत में हो रहा है क्यूंकि यह श्रृष्टि में मनुष्य के समक्ष सब कुछ भूत काल ही है वर्तमान कुछ नही अतः जो भी है वह हो चूका है , चर का अर्थ पथ जैसे चरण - जिसमे ण को आनंद से दर्शाया जाता है जिस पथ पर चलने से आनंद की अनुभूति है वही चरण है. विचार जब साधक स्वयं को पूर्ण रूप से लीं कर लें गुरु में वह ही विचार है अर्थात सब कुछ ब्रह्म है.

साक्षी जिसे साखी से दर्शाया है - स का स्वास से दर्शाया जाता है लेकिन जब इसमें अ जुड़ता है उस स्वामी स्वास जो परब्रह्म में लीन है अर्थात सा अर्थात साथ , अक्षि का अर्थात है चक्षु नयन अथवा आँख

कबीर को काया से दर्शया है और भवसागर को यह जीवन मृत्यु का चक्र .

जीव को शिव से दर्शया जाता है यह समझना थोडा कठिन हो सकता है लेकिन भौतिक शरीर की जीवात्मा को विश्व कहते हैं सम्मिलित विश्व को विराट एवं वितार की सम्मिलित शक्ति अथवा चैतन्य शक्ति को शिव कहते हैं जिस लिए जीवात्मा शिव है. माया एवं बुद्धि के स्थिति में यह जीवात्मा जीवन मृत्यु के संगम में प्रेवश करती है.

तीर का प्रकार जिसमे नीचे से उपर तक दंड का स्वरुप हो जिसमे निचला हिस्सा फैला हुआ है जिससे स्थिरता आये और उपर ठोस जिसे मेरुशीर्ष से दर्शाया गया है.

पूर्ण स्वरुप -

इस काया में ब्रह्म की स्थिति कूटस्थ में नयन रूप में विराजमान है और यही सम्पूर्ण सत्य है.
परब्रह्म से ही समस्त जीव की उत्पत्ति हुई है जो प्रक्रिया उत्पत्ति की है उसी से पुनः इस भवसागर से मुक्ति का स्त्रोत है. यदि इस तीर (दंड) की प्रक्रिया में बदलाव होगा तो यह जीवन मृत्यु का क्रम बना रहेगा. इसका एक मात्र मार्ग है माया से मुक्ति ही पुनः भवसागर से मोक्ष का पथ है.

उदाहरण हेतु - जिस प्रकार से फल में बीज विरजमान है और बीज मेंपूर्ण वृक्ष और वह पुनः बीज में परिवर्तित हो सकता है किस प्रकार से जब वह स्थिर पूर्वक विराजमान है उसी प्रकार से मनुष्य में भी परब्रह्म विराजमान है वह स्वयम को उनमे परिवर्तित कर सकता है लेकिन यह तभी संभव है जब वह स्थितता को प्राप्त करे साथ ही साथ अपना ध्यान भ्रूमध्य पर केन्द्रित करें

यह अर्थ इस प्रकार से समझना अत्यंत कठिन है एक सामान्य साधक हेतु लेकिन जो साधक अभ्यास कर रहे हैं क्रियायोग ध्यान का वही से आसानी से समझ पाएंगे अन्य के लिए समझना बड़ा कठिन है. अतः अभ्यास करते रहें.


श्रीम
सेवक माता धूमावती (धाम)
०९ जुलाई २०२१