श्री संत कबीर दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय। जो | Sahaj Kriyayog Sadhna Adhyatmik Trust
श्री संत कबीर
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय। जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥
अर्थ - सर्वप्रथम सुख का अर्थ समझना आवश्यक है की सुख किसे कहा गया है .
स — पूर्ण स्वास उ — उर्धगामी ख — आकाश
स्वास की वह स्तिति जब उसका विस्तार आकश के सामान हो जाये इसका न आदि है न अंत हो उस स्थिति को प्राप्त करने से सर्वोच्च सुख की प्राप्ति होती है.
दुःख
द - दाता उ - उर्धगामी ख - आकाश
सुमिरन का अर्थ प्रार्थना से है ओ की स्वयं की शक्ति को इश्वर की शक्ति समझना और खुद को उनके अंश में सम्मिलित करना है .
यह समझना की इश्वर कोई और है हम कोई और है यही दुःख की परिभाषा है निराकार परब्रह्म ही माया द्वारा चित से चित्ता में परिवर्तित हैं जो मनुष्य है. जिस प्रकार से समुद्र की लहरों में भी सामान सत्य है जो समुद्र में है उसी प्रकार से हममे भी वह सब विद्दमान है जो परब्रह्म में है.
जब मन इस जन्म में नाना प्रकार से भ्रमित होता है भ्रूमध्य पर एकाग्रता एवं क्रिया के अलावा तब वह अपने पूर्व जन्म से सम्बंधित उन सभी कष्ट को प्राप्त करता है जिसका वह शोधन कर सकता है एक मात्र क्रिया के माध्यम से इसी कारन से प्राण शक्ति में उर्जा का संचार कम होने लगता है जिसके कारन मन बुद्धि एवं वाणी तीनो ही असंतुलित होने लगती हैं.
सुख वह अवस्था है जिसमे साधक क्रिया में संलग्न हैं और उन्हें इश्वर से एकाकार है जब तक साधक इस अवस्था में रहते हैं समस्त प्रकार के कष्ट से मुक्त रहते हैं जब साधक स्वयं और इश्वर को अलग अलग समझने लगते हैं उस अवस्था को ही दुःख से दर्शया गया है. यदि साधक इस दुःख की अवस्था से मुक्ति प्राप्त करना चाहते हैं तो क्रिया आवश्यक है जिसके बिना सुख की प्राप्ति संभव नही है. जब साधक एक प्रकार की सुखमय अवस्था का सुमिरन आजीवन करते हैं तो माया का नाश होता है और चित्ता माया के अंत से चित्त में परिवर्तिती हो जाता है जिसे कैवल्य अवस्था की प्राप्ति कहते हैं.
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