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2021-05-24 20:51:43 https://www.orfonline.org/research/global-trade-after-covid-19-from-fixed-capital-to-human-capital/
431 viewsTiloka Ram, 17:51
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2021-05-24 20:49:54 अध्यादेश का पुनः प्रवर्तन निकृष्टम रूप है





केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की वायु गुणवत्ता प्रबंधन के लिए 2020 में अध्यादेश जारी किया था। इसके अंतर्गत इससे जुड़ा एक आयोग बनाए जाने का प्रावधान था। हाल ही में इस अध्यादेश का पुनः प्रवर्तन किया गया है। इस पूरे प्रकरण से गंभीर प्रश्न उठाए जा रहे हैं कि संसद में कानून को प्रस्तावित किए बिना अध्यादेश जारी करना और उसके पुनः प्रवर्तन की प्रवृत्ति का क्या अर्थ हो सकता है ?

संविधान में केंद्र और राज्य सरकारों को प्रावधान दिया गया है कि वे संसदीय सत्र के अभाव में आपातकालीन स्थितियों में अध्यादेश के द्वारा कानून बना सकती हैं। कानून बनाने की प्रक्रिया वैधानिक होती है। अतः अध्यादेश के द्वारा कानून प्रवर्तन का प्रावधान केवल आपातकालीन परिस्थितियों के लिए है। और इनकी समाप्ति भी निश्चित अवधि में हो जानी चाहिए। संविधान के अनुसार अध्यादेश, संसद या विधान मंडल की अगली बैठकों से छः सप्ताह के अंत में समाप्त हो जाएगा।

संविधान सभा में अध्यादेश की प्रवर्तन अवधि को लेकर चर्चा की गई थी कि इसे चार सप्ताह ही रखा जाना चाहिए। परंतु इसके पुनः प्रवर्तन पर तो कोई चर्चा भी नहीं की गई थी। शायद सभा के सदस्यों ने इसकी कल्पना भी नहीं की थी।

डेटा क्या बताते हैं ?

यद्यपि अध्यादेश का प्रवर्तन आपातकालीन परिस्थितियों के लिए किया गया था, तथापि केंद्र व राज्य सरकारें नियमित रूप से इसका इस्तेमाल करती रही हैं। 1950 के दशक में 7.1 प्रतिवर्ष के औसत से इसका प्रयोग किया गया।

राज्य सरकारें भी यदा-कदा इस प्रावधान का इस्तेमाल करती रही हैं। मामले को उच्चतम न्यायालय तक भी ले जाया गया था। इसकी जांच-पड़ताल हेतु पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ का गठन किया गया था, जिसने अध्यादेश के पुनः प्रवर्तन को संविधान विरोधी बताया था। इस पीठ ने अपने निर्णय पर सरकारों के इस कदम पर रोक नहीं लगाई। फलस्वरूप यह प्रथा बढ़ती चली गई।

2017 में एक बार फिर मामला उच्चतम न्यायालय में गया और सात सदस्यीय संविधान पीठ ने इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया। वर्तमान केंद्र सरकार ने इसकी परवाह न करते हुए इस प्रथा को जारी रखा था।

वर्तमान अध्यादेश –

वायु गुणवत्ता से जुड़े वर्तमान अध्यादेश को संसद के बजट सत्र के पहले दिन लाया गया था। लेकिन इसके साथ ही कोई विधेयक प्रस्तावित नहीं किया गया।

अध्यादेश के जीवित रहने की छः माह की अवधि का उदेश्य यही है कि इस बीच विधायिका इसकी जरूरत का अंदाजा लगा ले। पुनः प्रवर्तन को किसी भी स्थिति में सही नहीं ठहराया जा सकता, और इसे कार्यपालिका द्वारा विधायिका के अधिकारों का अनधिकृत ग्रहण माना जाना चाहिए।

‘द हिंदू’ में प्रकाशित एम.आर. माधवन के लेख पर आधारित।
275 viewsTiloka Ram, 17:49
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2021-05-24 20:48:42 लैंगिक असमानता




डॉ. भीमराव अम्‍बेड़कर ने कहा था कि किसी भी समाज का मूल्‍यांकन इस बात से किया जाता है कि उसमें महिलाओं के स्थिति कैसी है। इस दृष्टि से हाल ही में वैश्विक आर्थिक मंच द्वारा जारी अंतरराष्ट्रीय लैंगिक असमानता रिपोर्ट 2021 बहुत निराश करती है। जिन देशों को बेहद खराब करने वाला बताया गया है, उनमें भारत भी एक है। रिपोर्ट के अनुसार 156 देशों में भारत 140वे स्थान पर है। यह पिछले साल की तुलना में 28 स्थान कम है। इससे स्पष्ट होता है कि भारत महिलाओं की स्थिति के सुधार के बारे में चाहे जितने भी दावे क्यों न करे, लेकिन सच्चाई कुछ और ही है। जाहिर है कि इसके लिये भारत को बहुत लगकर काम करना होगा।

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद ने कहा है कि लैंगिक रूढि़यों को प्ले स्‍कूल के स्‍तर पर ही खत्‍म किया जाना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि जब बच्‍चे बड़े हों तो वे लिंग के आधार पर पक्षपात न करें। यह भी दिशा-निर्देश दिया गया है कि शिक्षकों को ऐसी भाषा का प्रयोग करने से बचना चाहिए, जो किसी एक लिंग तक सीमित होता है।

सामाजिक स्‍तर पर लैंगिक असमानता को दूर करने के लिये अनेक देश अपने-अपने स्‍तर पर तैयार दिखाई पड़ते हैं। इंग्‍लैण्‍ड की एडवरआइज स्‍टैंडर्ड अथारिटी ने अपने यहाँ के विज्ञापनों के लिए नये कानून बनाये हैं। इसके अनुसार विज्ञापनों में महिलाओं या पुरूषों को समाज में प्रचलित मान्‍यताओं के अनुसार नहीं दिखाया जा सकता। उदाहरण के तौर पर समाज यह मानता हुआ चला आ रहा है कि महिलायें घर का काम करती हैं, भोजन बनाती हैं और बच्‍चे सम्‍हालती हैं। अथारिटी के अनुसार जब बच्‍चे इस तरह के विज्ञापनों को देखते हैं, तो वे महिलाओं और पुरूषों की भूमिका के बारे में एक परम्‍परागत सोच बना लेते हैं। इस तरह की सोच लैंगिक समानता के लिये अदृश्‍य बाधा का काम करती है।

लैंगिक असमानता रिपोर्ट में यह दिखाया गया है कि एक प्रकार से राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक आदि क्षेत्रों में यह असमानता बनी हुई है। कुछ देशों ने इसे दूर करने के उपाय किये हैं। ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका और बेल्जियम जैसे देश यह उदाहरण प्रस्‍तुत करते हैं कि यदि संसद में महिलाओं का प्रतिशत बढ़ाना है, तो उसके लिये ‘कोटा की प्रणाली’ एक जरूरी कदम होना चाहिए।

जनरल आफ इकानॉमिक्‍स एंड ऑर्गनाइजेशन में प्रकाशित एक शोध में यह सामने आया है कि सरकार में महिलाओं की ज्‍यादा भागीदारी होने से भ्रष्‍टाचार कम होता है। 125 देशों में हुये इस शोध से पता चलता है कि जिन देशों की संसद में महिलायें ज्‍यादा हैं, वहाँ भ्रष्‍टाचार काफी कम हो गया है। साथ ही यह तो स्‍थापित सत्‍य है कि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी के बिना धारणीय विकास ,मानवाधिकार एवं विश्‍व शांति की कल्‍पना करना व्‍यर्थ होगा
434 viewsTiloka Ram, 17:48
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2021-05-23 19:29:57 https://www.orfonline.org/research/global-trade-after-covid-19-from-fixed-capital-to-human-capital/
328 viewsTiloka Ram, 16:29
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2021-05-23 19:18:17

322 viewsTiloka Ram, 16:18
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2021-05-23 18:37:05 https://t.co/IWXXsvDbvd
25 viewsTiloka Ram, 15:37
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2021-05-22 16:57:56
149 viewsTiloka Ram, 13:57
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2021-05-20 21:18:03
227 viewsTiloka Ram, 18:18
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2021-05-20 21:17:06
227 viewsTiloka Ram, 18:17
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2021-05-19 19:24:50
63 viewsTiloka Ram, 16:24
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