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अध्यादेश का पुनः प्रवर्तन निकृष्टम रूप है केंद्र सरकार ने | PSIR optional Hindi / English Medium

अध्यादेश का पुनः प्रवर्तन निकृष्टम रूप है





केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की वायु गुणवत्ता प्रबंधन के लिए 2020 में अध्यादेश जारी किया था। इसके अंतर्गत इससे जुड़ा एक आयोग बनाए जाने का प्रावधान था। हाल ही में इस अध्यादेश का पुनः प्रवर्तन किया गया है। इस पूरे प्रकरण से गंभीर प्रश्न उठाए जा रहे हैं कि संसद में कानून को प्रस्तावित किए बिना अध्यादेश जारी करना और उसके पुनः प्रवर्तन की प्रवृत्ति का क्या अर्थ हो सकता है ?

संविधान में केंद्र और राज्य सरकारों को प्रावधान दिया गया है कि वे संसदीय सत्र के अभाव में आपातकालीन स्थितियों में अध्यादेश के द्वारा कानून बना सकती हैं। कानून बनाने की प्रक्रिया वैधानिक होती है। अतः अध्यादेश के द्वारा कानून प्रवर्तन का प्रावधान केवल आपातकालीन परिस्थितियों के लिए है। और इनकी समाप्ति भी निश्चित अवधि में हो जानी चाहिए। संविधान के अनुसार अध्यादेश, संसद या विधान मंडल की अगली बैठकों से छः सप्ताह के अंत में समाप्त हो जाएगा।

संविधान सभा में अध्यादेश की प्रवर्तन अवधि को लेकर चर्चा की गई थी कि इसे चार सप्ताह ही रखा जाना चाहिए। परंतु इसके पुनः प्रवर्तन पर तो कोई चर्चा भी नहीं की गई थी। शायद सभा के सदस्यों ने इसकी कल्पना भी नहीं की थी।

डेटा क्या बताते हैं ?

यद्यपि अध्यादेश का प्रवर्तन आपातकालीन परिस्थितियों के लिए किया गया था, तथापि केंद्र व राज्य सरकारें नियमित रूप से इसका इस्तेमाल करती रही हैं। 1950 के दशक में 7.1 प्रतिवर्ष के औसत से इसका प्रयोग किया गया।

राज्य सरकारें भी यदा-कदा इस प्रावधान का इस्तेमाल करती रही हैं। मामले को उच्चतम न्यायालय तक भी ले जाया गया था। इसकी जांच-पड़ताल हेतु पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ का गठन किया गया था, जिसने अध्यादेश के पुनः प्रवर्तन को संविधान विरोधी बताया था। इस पीठ ने अपने निर्णय पर सरकारों के इस कदम पर रोक नहीं लगाई। फलस्वरूप यह प्रथा बढ़ती चली गई।

2017 में एक बार फिर मामला उच्चतम न्यायालय में गया और सात सदस्यीय संविधान पीठ ने इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया। वर्तमान केंद्र सरकार ने इसकी परवाह न करते हुए इस प्रथा को जारी रखा था।

वर्तमान अध्यादेश –

वायु गुणवत्ता से जुड़े वर्तमान अध्यादेश को संसद के बजट सत्र के पहले दिन लाया गया था। लेकिन इसके साथ ही कोई विधेयक प्रस्तावित नहीं किया गया।

अध्यादेश के जीवित रहने की छः माह की अवधि का उदेश्य यही है कि इस बीच विधायिका इसकी जरूरत का अंदाजा लगा ले। पुनः प्रवर्तन को किसी भी स्थिति में सही नहीं ठहराया जा सकता, और इसे कार्यपालिका द्वारा विधायिका के अधिकारों का अनधिकृत ग्रहण माना जाना चाहिए।

‘द हिंदू’ में प्रकाशित एम.आर. माधवन के लेख पर आधारित।