ऑफिस से लौटते पापा की
साइकिल पर टंगा होता था
बच्चों की भूख का सामान,
मां की जरूरतों का सामान,
मेहमानों की खातिरदारी का सामान,
घर की टूट-फूट मरम्मत का सामान,
बच्चों के भविष्य चमकाने का सामान
मेरा सामान, तेरा समान
वो ढो रहे थे...
जिम्मेदारियों का बोझ
वो बो रहे थे...
सबकी ख्वाहिशें पूरी करने के बीज।।।
पर अपनी ख्वाहिशें ...
अपनी जरूरतें
पूरी करने को उनका थैला
हमेशा से ही क्यों रहा खाली???
ये हम भरे पेट, भरे मन
ले कर भी ना समझ पाये।।।
सारिका
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