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भरपूर कितनी होती है ज़िन्दगी बस जानने की देर है सत-चित-आनंद बसा | अध्यात्म(ब्रह्मज्ञान)

भरपूर कितनी होती है ज़िन्दगी
बस जानने की देर है
सत-चित-आनंद बसा है सबमें
टटोलने भर की देर है
हर पल को पल में ही जीने की देर है


कर्म-ओ-नसीब, गिले-शिकवे, मुस्कान अडिग चलते रहते
मानो सागर में उठती गिरती लहरों सी हो
बात बस ये समझने की है
के इंसान-रुपी ये प्राणी उस सागर में एक लहर सामान है
पर लहर का कोई अस्तित्व नहीं,
सब नाम-रूप का खेल है

गम और ख़ुशी भी उसी लहर के सामान है,
मानो एक ही सिक्के के दो पहलू के नाम हैं
एक तरफ चढ़ाई, तो दूसरी तरफ ढलान है
गर समझ लिया तो चारो ओर मुस्कान है

फिर क्या दूसरे, क्या तुम और मैं
सब एक हैं, सब एक समान हैं  
बस शरीर-रुपी चादर ओढ़े भेद बढ़ाये जाते हैं
पहचान लिया जो सत्य को
तो स्वर्ग नर्क एक समान है

बस जानने की देर है
पहचानने की देर है
भरपूर कितनी होती है ज़िन्दगी...