Get Mystery Box with random crypto!

ध्वनि सिद्धान्त ध्वनि की परिभाषा – ध्वनिकार आनन्दवर्धन | Hindi Grammer Quiz

ध्वनि सिद्धान्त

ध्वनि की परिभाषा – ध्वनिकार आनन्दवर्धन ने ध्वनि की परिभाषा इस प्रकार प्रस्तुत की है –

प्रतीयमानं पुरन्यदेवं वस्त्वस्ति वाणीषु महाकवीनाम्।
यत् तत् प्रसिद्धावयवातिरिक्तं विभाति लावण्यमिवांगनासु।।

अर्थात् महाकवियों की वाणियों में वाच्यार्थ से भिन्न प्रतीयमान कुछ और ही वस्तु है, जो प्रसिद्ध अलंकारों अथवा प्रतीत होने वाले अवयवों से भिन्न, सहृदय सुप्रसिद्ध अंगनाओं के लावण्य के समान (अलग) प्रकाशित होता है। जिस प्रकार सुन्दरियों का सौंदर्य पृथक् दिखाई देने वाला समस्त अवयवों से भिन्न सहृदय नेत्रों के लिए अमृत तुल्य कुछ और ही तत्त्व है, इसी प्रकार वह (प्रतीयमान अर्थ) है और यह प्रतीयमान अर्थ तभी प्राप्त होता है, जहाँ अर्थ स्वयं को तथा शब्द अभिधेय अर्थ को गौण बनाकर उस अर्थ को प्रकाशित करते हैं। उस काव्य विशेष को विद्वानों ने ’ध्वनि’ कहा है।

यथार्थः शब्दो वा तमर्थमुपसर्जनीकृत स्वार्थौ।
व्यक्तः काव्य विशेषः स ध्वनिरिति सुरिभिः कथितः।।

अर्थात् जहाँ पर वाच्यार्थ, वाच्य अथवा वाचक प्रधानीभूत व्यंग्यार्थ को व्यक्त करते हैं, उस काव्य विशेष को ध्वनि कहते है। यह व्यंग्यार्थ मुख्यार्थ से श्रेष्ठ होना चाहिए। यद्यपि ’व्यंजना’ शब्द व्याकरणों में बहुत पहले से प्रचलित था, परन्तु काव्य में उसका महत्त्व सर्वप्रथम आनन्दवर्धन द्वारा ही प्रतिपादित किया गया था।

◆ यह कार्य ध्वनिमत की स्थापना द्वारा सम्पन्न हुआ। आनन्दवर्धन इस व्यापार के मूल में शब्द की तीनों वृत्तियों को महत्त्व देकर व्यंग्यार्थ को मुख्यार्थ से श्रेष्ठ सिद्ध किया।

◆ जहाँ तक व्यंग्यार्थ का प्रश्न है, किसी भी शब्द अथवा वाक्य में व्यंग्यार्थ हो सकता है, परन्तु इस प्रकार के व्यंग्यार्थ को काव्य नहीं कह सकते। चमत्कारी अथवा चारुत्व युक्त व्यंग्य को ही काव्य कहा गया है।

◆ यह व्यंग्यार्थ एक विलक्षण-अर्थ ही हुआ करता है, यह वाच्यातिशायी होता है। यह तो कुछ और ही (अन्यत् एव) है। यह विशिष्ट अर्थ प्रतिभाजन्य है, सुस्वादु (सरस) है, वाच्य के अतिरिक्त कुछ दूसरी ही वस्तु है, यही ध्वनन व्यापार होता है। यह काव्यविशेष का अर्थ है, अर्थ या शब्द या व्यापार वाच्यार्थ भी ध्वनन करता है, और शब्द भी।

◆ इस प्रकार व्यंग्य (अर्थ) भी ध्वनित होता है अथवा शब्द, अर्थ, व्यापार भी ध्वनन व्यापार है। इस प्रकार समुदाय शब्द अर्थ-वाच्य (व्यंजक) अर्थ और व्यंग्य अर्थ तथा शब्द और अर्थ का व्यापार ध्वनि है। अतः लोचनकार द्वारा दी गयी इस व्याख्या के आधार पर ध्वनि के पाँच व्युत्पत्यर्थ स्वीकार किए गए है – ध्वनति ध्वनयति इति वा ध्वनि – जो ध्वनिवत करे व कराए, वह ध्वनि है। यह शब्द के लिए आता है। वाचक, लक्षक, व्यंजक तीनों प्रकार के शब्द जब किसी व्यंग्य अर्थ के व्यंजक होते हैं, तो ध्वनि कहे जाते हैं।

◆ ध्वन्यत इति ध्वनि – जो ध्वनित हो वह ध्वनि है। इस कर्मप्रधान व्युत्पत्ति से ध्वनि शब्द रसादि व्यंग्यों का वाचक होता है। वस्तु, रसादि और अलंकार ध्वनित होते हैं। ये सब ध्वनि है।

ध्वन्यते अनेन इति ध्वनि – जिस कारण अर्थात् शब्द व्यापार या शब्द शक्ति द्वारा ध्वनि की उत्पत्ति होती है, वह ध्वनि है। इस प्रकार करण प्रधान ध्वनि शब्द से व्यंजना आदि शक्तियों का बोध होता है। प्रत्येक शब्द और अर्थ के बीच सम्बन्ध स्थापित करने वाली एक-एक शक्ति होती है जो शब्द से अर्थ की उपस्थिति कराती है जिसका वर्णन क्रमशः अभिधा, लक्षणा और व्यंजना के नाम से हो चुका है।

ध्वननं ध्वनि – ध्वनित होना ध्वनि है। इस रूप में यह भाववाचक संज्ञा है। इससे वस्तु अलंकार और रसादि की सूचना समझी जाती है। अभिव्यंजन, ध्वनन, सूचन इसके समानार्थक शब्द है।

ध्वन्यत अस्मिन्निति ध्वनि – जिसमें वस्तु, अलंकार, रसादि ध्वनित हो, ध्वनि है। यह ध्वनि पद अधिकरण प्रधान है। यह शब्द गुणवाची विशेषण होकर काव्य शब्द के साथ समधिव्याव्हृत होता है। यह ध्वनि काव्य है, ऐसा व्यवहार इसी विग्रह पर अवलम्बित है।

इस प्रकार ध्वनि का प्रयोग पाँच अर्थों में होता है-व्यंजक शब्द, व्यंजक अर्थ, व्यंग्य शब्द, व्यंग्य अर्थ (व्यंजना-व्यंजना व्यापार) और व्यंग्य प्रधान काव्य। संक्षेप में ध्वनि का अर्थ है व्यंग्य, परन्तु पारिभाषिक रूप में यह व्यंग्य वाच्यातिशायी होना चाहिए। इस अतिशय्य अथवा प्राधान्य का आधार है चारुत्व अर्थात् रमणीयता का उत्कर्ष। अतएव वाच्यातिशायी का अर्थ हुआ वाच्य से अधिक रमणीय और ध्वनि का संक्षिप्त लक्षण हुआ-वाच्य से अधिक रमणीय व्यंग्य को ध्वनि कहते है।

पार्ट 1