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गणेश शंकर विद्यार्थी “जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान ह | Utkarsh Ramsnehi Gurukul

गणेश शंकर विद्यार्थी
“जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
यह नर नहीं, नर पशु निरा है और मृतक समान है।।“
⬧ गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद शहर में 26 अक्टूबर, 1890 को हुआ।
⬧ एंट्रेंस पास करने के बाद वे कानपुर करेंसी दफ़्तर में मुलाज़िम हो गए।
⬧ वर्ष 1913 में उनके उद्योग से निकला साप्ताहिक ‘प्रताप’ अख़बार एक ओर जहाँ हिंदी का पहला सप्रमाण राष्ट्रीय पत्र सिद्ध हुआ, वहीं साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में उदित हो रही नई प्रतिभाओं का प्रेरक मंच भी वह बना।
⬧ विद्यार्थी आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को अपना साहित्यिक गुरु मानते थे।
⬧ उन्हीं की प्रेरणा से आज़ादी की अलख जगाने वाली रचनाओं का सृजन और अनुवाद किया तथा इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने सहायक पत्रकारिता की।
⬧ विद्यार्थी के जीवन का ज़्यादातर समय जेलों में बीता। इन्हें बार- बार जेल में डालकर भी अंग्रेज़ सरकार को संतुष्टि नहीं मिली।
⬧ गणेश शंकर विद्यार्थी की वैचारिक अग्नि दीक्षा लोकमान्य तिलक के विचार-लोक में हुई थी।
⬧ कानपुर में 25 मार्च, 1931 में हुए सांप्रदायिक दंगों को शांत करवाने के प्रयास में विद्यार्थी को अपने प्राणों की बलि देनी पड़ी।
⬧ इनकी मृत्यु पर महात्मा गाँधी ने कहा था : “काश! ऐसी मौत मुझे मिली होती।”
⬧ विद्यार्थी अपने जीवन में भी और लेखन में भी गरीबों, किसानों, मजलूमों, मज़दूरों आदि के प्रति सच्ची हमदर्दी प्रदर्शित करते थे।
⬧ देश की आज़ादी उनकी नज़र में सबसे महत्त्वपूर्ण थी।