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मुझे मुक्त कर दो जब से ब्याह कर आई।सब कुछ अच्छे से निभाया, जहा | हिंदी मंच - सकारात्मक भाव

मुझे मुक्त कर दो
जब से ब्याह कर आई।सब कुछ अच्छे से निभाया, जहाँ कोई कुछ बोलता वहाँ और अच्छा करने की कोशिश करती।मगर हर बहु को सराहना मिले, ये मुमकिन तो नहीं।वक़्त गुजरता रहा,बच्चे हुए,देवर ननदों की शादियां हो गई।
बहुत कुछ बदला, मगर उसके लिए सब पहले जैसा।कोई कदर नहीं, हाँ अब बच्चे बड़े हो गए थे,सब समझते थे अपनी माँ का साथ देना,घर के कामों में मदद और हौंसला अफजाही।
अब तो बालों में सफेदी चमकने लगी थी।अब बर्तन फेंकनें और चीखने चिल्लाने की आवाजें भी बहुत कम हो गई थी।
मगर अब वो हार गई थी,कहते हैं ना कभी कभी अपने लिए नहीं ,अपनों के लिए जीना पड़ता है।
अब तक बेटा, बेटी भी पढ़ा लिखा कर ब्याह दिए थे।
बेटा बहु दूसरे शहर में नोकरी कर रहे थे।
आज जैसे ही बेटा बहु मिलने आए तो किसी बात पर क्लेश हो गया।
आज वो चुप नहीं रही।इतने बरसों का आक्रोश फूट पड़ा।सब हैरान थे।
बेटा साथ ले जाने के लिए आया था।
उसने सबको हाथ जोड़कर कहा,अब मैं सिर्फ अपने लिए जीना चाहती हूं।
मुझे मुक्त कर दो,ओर वो बेटे बहु का हाथ थाम कर चौखट पार गई।
मौलिक रचना
शबनम सागर

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