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तुम क्यों वासना का पक्ष लेते हो? राजा भर्तृहरि के जीवन से य | ब्रह्मचर्य

तुम क्यों वासना का पक्ष लेते हो?

राजा भर्तृहरि के जीवन से यही पता चलता ही कि ऊँचे-से-ऊँचे भोग में भी ये दम नहीं है कि वो जागृति को रोक सके। जिसकी तुम सिर्फ कल्पना कर सकते हो वो सब उन्हें उपलब्ध था। जो कुछ तुम अपने लिए चाहते हो, वो उससे गुज़रे, वो उनका अनुभव था। जिसकी तुम लालसा रख सकते हो, उसको उन्होंने सक्रिय तौर पर भोगा, और उसके बाद भी ठूँठ-के-ठूँठ रह गए। ये है राजा भर्तृहरि के जीवन से सीख।

तुम कहते हो कि चार बूँद मिल जाए तो तर जाओगे। अपने प्रेमियों को या अपनी प्रेमिकाओं को जब तुम कविताएँ लिखते हो, तो कुछ इसी तरह की तो लिखते हो? तेरे लबों से दो बूँदें मिल जाती, वगैरह-वगैरह। तुम दो बूँद में अघा जाते हो, तुम्हें लगता है इतना ही बहुत होगा। और भर्तृहरि को दो महासागर उपलब्ध थे। दो महासागर में भी पेट नहीं भरा, तुम्हारा दो बूँद में कैसे भर जाएगा?

तुम हो कितने भी भोग में लिप्त, जागरण की ताक़त भोग की ताक़त से कहीं ज़्यादा है। श्रृंगार में और वैराग्य में जीता कौन? जीता तो वैराग्य ही न। इससे तुम्हें तुम्हारे भीतर की ताक़त का पता चलना चाहिए। तुम्हारे भीतर भी दोनों हैं, श्रृंगार भी है, वैराग्य भी है। जीतना वैराग्य को ही है।

तुम क्यों श्रृंगार का पक्ष लिए जाते हो?

हरंतों के साथ खड़ा होकर तुम्हें क्या मिलेगा? तुम गलत पक्ष पर बाज़ी लगा रहे हो। तुम सट्टे में पैसा खोओगे। तुम उसकी तरफ खड़े हो गए हो जिसका हारना पक्का है।

ऋषि भर्तृहरि जैसे मामले में भी जब काम और भोग नहीं जीते तो तुम्हारे मामले में क्या जीतेंगे? कामदेव जितना प्रबंध, जितनी योजना कर सकते थे, उतनी उन्होंने की और फिर भी उन्होंने मुँह की खाई। जीता कौन? काम कि शिव? जब शिव को ही जीतना है तो शिव के साथ हो लो न।

ऐसी लड़ाई क्यों लड़ते हो जिसमें पिटाई पक्की है?

और बेग़ैरती की पिटाई। ये भी नहीं है कि तुम जाकर साधू-संतों से जूता खा रहे हो कि गुरु से पिट रहे हो। कभी किसी वैश्या से गाली खाओगे, कभी किसी दो कौड़ी के सौदागर से, कभी किसी अयोग्य ग्राहक से। ऐसे-ऐसों के तलवे चाटोगे जो किसी कीमत के नहीं। क्यों अपनी ये दुर्गति कराना चाहते हो?

एक उम्मीद अगर तुम छोड़ दो तो जीवन सरल हो जाएगा। उम्मीद ये है तुम्हारी कि किसी तरह से तुम जैसे हो वैसे ही बने रहो और फिर भी तुम्हें उच्चतम की प्राप्ति हो जाए। शिव तुम्हें चाहिए पर काम छोड़े बिना। शिव तुम्हें चाहिए पर शिव के सिंहासन पर तुमने काम को बैठा रखा है। ये उम्मीद छोड़ दो कि शिवत्व की प्राप्ति तुम्हें काम से हो सकती है; सब अपने आप ठीक हो जाएगा।

जब काम आए और दस्तक दे तो उससे पूछो, तू देगा क्या मुझे? ज़रा आरपार की बात करो न। कहो, "बैठ यहाँ पर, ये मेज़ है, सामने बैठ। तू क्या देगा मुझे?" और जो कुछ वो देगा उसका विवरण माँगो, जैसे कि एक चतुर ग्राहक माँगता है। ऐसे ही थोड़े कि एक व्यापारी आया, उसने तुम्हें लुभाया और तुमने गाँठ ढीली कर दी। इसमें कोई होशियारी है?

तुम पहले पूछो कि अपना माल दिखा और बता कि तेरे माल से मुझे क्या फायदा है? विवरण दे, एक-एक छोटी-से-छोटी बात बता; हाँ, फिर क्या होगा, हाँ, फिर क्या होगा, हाँ, फिर क्या होगा। पल-पल का हाल बता, नमूना दिखा। और जैसे-जैसे बात खुलती जाएगी, वैसे-वैसे तुम पाओगे कि तुम्हारी उम्मीद गलती जा रही है। तुम्हें दिख जाएगा साफ-साफ कि ये जो तुम्हें देने आया है उसमें झूठी उत्तेजना, मलिनता और दुर्गंध के अलावा और कुछ नहीं है।



@brahmacharyalife