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असङ्गोऽयं पुरुष: हमारे नेत्रों पर जिस रंग का उपनेत्र (चश्मा) | ब्रह्मचर्य

असङ्गोऽयं पुरुष:

हमारे नेत्रों पर जिस रंग का उपनेत्र (चश्मा) होता है; हमारे नेत्र भी उसी रंग के पदार्थ देखते हैं क्योंकि नेत्र वही देख पाते हैं जिस रंग को चश्मा उस नेत्र तक प्रेषित कर रहा है।

यदि हम उस पदार्थ को वैसे का वैसा ही देखना चाहते हैं जैसा कि उस पदार्थ का वास्तविक रंग है तो उसके लिए रंगीन नहीं, रंगहीन काँच वाला उपनेत्र चाहिए ।

इसी प्रकार हमारी बुद्धि जिन वासनाओं के रंगों से रंगी होती है आत्मा संसार को उसी रूप में वैसा ही समझता है क्योंकि बुद्धि आत्मा का दर्पण हैं आत्मा बुद्धि के झरोखे से ही संसार में झाँकता है, जब हमारी बुद्धि नीर-क्षीर विवेकी हो जाती है तब यह संसार भी ऐसा ही दृष्टिगोचर होता है जैसा कि संसार का वास्तविक रूप है।

बुद्धि और आत्मा का तादात्म्य ही दुखों का आमंत्रण हैं
आत्मा को असङ्ग भाव से देखना ही दुखों की निवृत्ति का मार्ग है।

#दार्शनिक_विचार