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श्रीमद्भागवत गीता अध्याय १३ - क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग ( | Bhagavad Gita (श्रीमद्भगवद्गीता)

श्रीमद्भागवत गीता

अध्याय १३ - क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग

(क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विषय)

अर्जुन ने पूछा - हे केशव! मैं आपसे प्रकृति एवं पुरुष, क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ और ज्ञान एवं ज्ञान के लक्ष्य के विषय में जानना चाहता हूँ। 

श्री भगवान ने कहा - हे कुन्तीपुत्र! यह शरीर ही क्षेत्र (कर्म-क्षेत्र) कहलाता है और जो इस क्षेत्र को जानने वाला है, वह क्षेत्रज्ञ (आत्मा) कहलाता है, ऎसा तत्व रूप से जानने वाले महापुरुषों द्वारा कहा गया हैं।

हे भरतवंशी! तू इन सभी शरीर रूपी क्षेत्रों का ज्ञाता निश्चित रूप से मुझे ही समझ और इस शरीर तथा इसके ज्ञाता को जान लेना ही ज्ञान कहलाता है, ऐसा मेरा विचार है।

यह शरीर रूपी कर्म-क्षेत्र जैसा भी है एवं जिन विकारों वाला है और जिस कारण से उत्पन्न होता है तथा वह जो इस क्षेत्र को जानने वाला है और जिस प्रभाव वाला है उसके बारे में संक्षिप्त रूप से मुझसे सुन।

इस क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के बारे में ऋषियों द्वारा अनेक प्रकार से वैदिक ग्रंथो में वर्णन किया गया है एवं वेदों के मन्त्रों द्वारा भी अलग-अलग प्रकार से गाया गया है और इसे विशेष रूप से वेदान्त में नीति-पूर्ण वचनों द्वारा कार्य-कारण सहित भी प्रस्तुत किया गया है। 

हे अर्जुन! यह क्षेत्र पंच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश), अहंकार, बुद्धि, प्रकृति के अव्यक्त तीनों गुण (सत, रज, और तम), दस इन्द्रियाँ (कान, त्वचा, आँख, जीभ, नाक, हाथ, पैर, मुख, उपस्थ और गुदा), एक मन, पाँच इन्द्रियों के विषय (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध)। इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, चेतना और धारणा वाला यह समूह ही विकारों वाला पिण्ड रूप शरीर है जिसके बारे में संक्षेप में कहा गया है।

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